शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

विकल्प: दस दिवसीय शिविर में आपका स्वागत है

सफ़र उत्तर बिहार के शिवहर जिले में एक दस दिवसीय शिविर, विकल्प का आयोजन कर रहा है. 22 से 31 दिसंबर 2001 तक तरियानी छपरा गांव में चलने वाले इस शिविर का मुख्‍य उद्देश्य है सम्प्रेषण के विविध उपकरणों और तौर-तरिक़ों से दोस्ती गांठना और समुदाय के हित में उनके प्रयोग की बारिकियों को सीखना. शिविर इस मायने में महत्तवपूर्ण है कि सहभागियों को आपस में अपने ज्ञान और हूनर के आदान-प्रदान का मौक़ा मिलेगा और साथ में ग्रामीण जीवन का तजुर्बा भी. उम्मीद है यह शिविर मनचाही दिशा में आगे बढ़ने में सहभागियों की मदद करेगा.

कोशिश की गयी है कि विकल्प सीखने-सिखाने का एक दिलचस्प माध्‍यम बने. इन दिनों के दौरान सहभागी नयी मीडिया तकनीकों के साथ तरह-तरह के प्रयोग करेंगे, ग्रामीणों के साथ बातचीत करेंगे, तस्वीरें उतारेंगे और विडीयो बनाएंगे, आवाज़ और तस्वीरों के साथ कुछ खेल करेंगे, किताब डिज़ाइन करेंगे, कॉमिक बनाएंगे, कहानी और कविता लिखेंगे ...

कुछ सामुदायिक बैठकें भी होंगी जहां शिविरार्थियों को रहन-सहन, कला, संस्‍कृति इत्यादि से रू-ब-रू होने का अवसर मिलेगा.

विकल्प मे शामिल होने के लिए किसी तरह की औपचारिक योग्यता की ज़रूरत नहीं है, हां, समुदाय और मीडिया में दिलचस्पी तो होनी ही चाहिए. शिविर में शामिल होने का मन बना रहे लोगों से हमारा यह अनुरोध है कि वे तरियानी छपरा आने-जाने का ख़र्च ख़ुद वहन करें साथ ही 500 रुपए का अनुदान भी दें ताकि खान-पान और टिकने-टिकाने के अलावा अन्य ज़रूरी सामग्री का इंतजाम किया जा सके. आप यदि अतिरिक्त अनुदान देना चाहें तो आपका स्वागत है. ये अतिरिक्त योगदान किसी और सहभागी के काम आ सकता है.

सफ़र एक लाभनिरपेक्ष पहल है. कार्यक्रम और गतिविधियों के अनुरूप दोस्तों, शुभचिंतकों और अपने हमसफ़रों का सहयोग हमारा वित्तीय आधार है.

विकल्प में आपका स्वागत है. आप इस न्यौते को खुलकर अपने दोस्तों और परिचितों के साथ साझा कर सकते हैं. शिविर में शामिल होने का मन बना रहे हों तो जल्द से जल्द हमें सू‍चित करें.

तरियानी छपरा मुज़फ़्फ़रपुर रेलवे जंक्शन से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. मुज़फ़्फ़रपुर के लिए देश के लगभग सभी बड़े शहरों से सीधी रेल की व्यवस्था है.

किसी भी तरह की पूछताछ के लिए

safar.delhi@gmil.ocm पर लिखें, या
+91 9811 972 872 अथवा +91 9971 393 818 पर फ़ोन करें

सोमवार, 5 नवंबर 2007

हमारा सामुदायिक घर ताड़ी की गद्दी है ...

रामप्रवेश राम

तरियानी छपरा गांव में कुछ अनुसूचित जाति मोहल्लों में विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत सामुदायिक भवन और चौपाल निर्माण करवाया गया है. हमारे टोले में भी कहने के लिए दो सामुदायिक भवन और चौपाल है. सफ़र के कार्यकर्ताओं ने गांव की सार्वजनिक संपत्ति के बारे में जब से दस्तावेज़ीकरण करना शुरू किया है तब से मेरा ध्यान भी इस पर गया है.

हालांकि ऐसा नहीं है कि पहले मैं इसके बारे में नहीं सोचता था, पर तब मैंने ये नहीं सोचा था कि इस पर भी कुछ लिखा-पढ़ा जा सकता है. लेकिन जब अभय, विजय, विकास और सफ़र के अन्य साथियों ने अपने-अपने ने मोहल्ले और आसपड़ोस के सामुदायिक भवनों पर काम करना शुरू किया तब मैंने भी इस मसले पर विचार करना शुरू किया.

एक सामुदायिक चौपाल हमारे घर के ठीक बग़ल में है. पर कोई भी व्यक्ति देखकर उसे चौपाल नहीं कहेगा. मैं बचपन से इस चौपाल को देख रहा हूं. उपर से खपरैल और नीचे ईंट और सिमेंट की फ़र्श, और ईंट के ही पायों पर खड़ा यह चौपाल दरअसल अब ताड़ी और ताश का अड्डा बनकर रह गया है. दिन ढलते ही यहां ताड़ी पीने वालों का जमघट लग जाता है. ताश खेलने वाले तो ख़ैर, दिन भर लगे ही रहते हैं. वैसे लोग जिन्‍हें काम-धंधे में मन नहीं लगता है, जमे रहते हैं यहां.

टोले का ही एक व्यक्ति ताड़ी का कारोबार करता है. उसने चौपाल को दो तरफ़ से घेर दिया है, जिसमें वह ताड़ी रखता है और उसके मवेशी भी चौपाल के इर्द-गिर्द बंधे रहते हैं. देर रात तक लोग ताड़ी पीकर गाली-गलौज करते हैं और जमकर शोर मचाते हैं. आसपास के लोगों को इसके चलते बहुत परेशानी होती है. कई पियाक तो ऐसे हैं जो घर भी नहीं जाते हैं और रातभर हंगामा मचाते हैं.

कई बार ताड़ी का धंधा करने वाले को समझाने की कोशिश की गयी कि वो ये काम बंद कर दें. समझना तो दूर की बात, वो उल्टे समझाने वालों से झगड़ने लगता है और मारपीट पर उतारू हो जाता है. एक-आध बार मामला थाने में भी पहुंचा, लेकिन कोई ख़ास असर नहीं हुआ. शायद ले-देकर मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया क्योंकि पुराना काम जारी ही रहा.

दूसरा सामुदायिक भवन जो थोड़ी दूर हटकर सड़क के किनारे है, उसकी हालत और भी जर्ज है. छप्पड़ भी टूट गया है. अब यह भवन शौचालय से ज़्यादा कुछ नहीं रह गया है. मैंने जब इसके बारे में अपने आसपास के लोगों से बातचीत की तो उनका कहना था कि कौन जाएगा उससे झगड़ा करने और सिर फोड़वाने. हालांकि कुछ महिलाएं ज़रूर इसके खिलाफ़ हैं और वो यहां से ताड़ी की गद्दी हटाने के लिए संघर्ष करने को भी तैयार हैं. पर एक बार फिर यही लगता है कि जबतक लोग एकजुट होकर इसका विरोध नहीं करेंगे सामुदायिक भवन पर ये क़ब्ज़ा बना ही रहेगा और सार्वजनिक सम्पत्ति का ऐसे ही दुरउपयोग होता रहेगा.

इन दोनों ही सामुदायिक भवनों के बारे में मैं और भी जानकारी जुटाने की कोशिश कर रहा हूं.

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2007

बरसात में अनुसूचित जाति मोहल्ला


रामप्रवेश राम

मेरा घर गांव के सबसे आखिर में है. दरअसल यह अनुसूचित जाति का मोहल्ला है. बहुत पहले तो हमारे टोले के बाद कुछ ही घर उंची जाति वालों के थे. पर अब जैसे-जैसे उनका वालों बढ़ रहा है वे लोग और आगे हटकर अपना घर बना रहे हैं. पर हमारे टोले की स्‍थिति वैसी ही है. घरों की संख्या भी ज़्यादा नहीं बढ़ी है. हां दो-चार ईंट के मकान ज़रूर बन गए हैं. वो भी उन्हीं के, जिनके बच्चों ने गांव से निकल कर मेहनत-मज़दूरी की. दो पैसे जमा किए. पर ईंट के मकान दो-चार ही हैं. पर उनमें रहने वाले आज भी शरीर से मेहनत करते हैं, दिल्ली, लुधियाना, जलंधर, मुज़फ़्फ़रपुर जैसे छोटे-बड़े शहरों में रिक्शा खींचते हैं, दुकान में काम करते हैं ...

मेरे घर के आसपास हर साल अषाढ़ से कार्तिक तक वर्षा के कारण जलजमाव रहता है. टोले के लोगों को बहुत परेशानी होती है. मेरे घर से उत्तर दिशा में एक बांध है. हर साल बाढ़ के दिनों में उसके टूटने की आशंका बनी रहती है. कभी-कभी टूट भी जाती है. और जब बांध टूटती है तो हमलोगों को जी-जान लेकर इधर-उधर भागना पड़ता है. मुझे लगता है कि इस बांध को अगर नहीं बांधने दिया होता तो आज ये परेशानी नहीं होती.

हमारे टोले के चारो तरफ़ जलजमाव रहता है. पानी निकलने का कोई रास्ता है ही नहीं. इसके कारण टोले के लोगों खाने-पीने से लेकर स्वास्थ संबंधी बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. डायरिया तो बहुत आम बीमारी होती है बरसात के दिनों में. हर साल बरसात के मौसम में चारो तरफ़ पानी लगे होने के कारण पैदा होने वाली के बीमारी के चलते एक न एक मौत होती है. अकसर बच्चे मौत के शिकार बनते हैं. गांव में एक अस्पताल है. कहने को तो रेफ़रल हॉस्पिटल है, पर उसको देखकर आपको भी डर लगेगा. सुनसान पड़ा रहता है. मैं इसी गांव में रहता हूं पर मुझे भी नहीं मालूम कि डॉक्टर आता भी है कि नहीं. और आता है तो कब आता है. अब ऐसी हालत में साइकिल पर घुम-घुम कर डाक्टरी करने वाले के पास ही हमें भागना पड़ता है.

हमारे मवेशियों के लिए तो ये मौसम और भी तकलीफ़देह होता है. हम लोगों के पास भूसा जमा करने की न जगह है और न ही साधन, जिसके चलते बरसात के मौसम में चारे की कमी के कारण मवेशियों को बहुत तकलीफ़ होती है. बच्चा तो है नहीं कि एक रोटी के टुकड़े से उसका पेट भर जाएगा. ऐसी हालत में कभी किसी की बकरी तो कभी किसी की गाय तो किसी की बाछी की मौत हो जाती है.

हमारे टोले तक आने-जाने के लिए सड़क नहीं है. जिसके चलते शादी-ब्याह के दिनों में बहुत दिक़्क़त होती है. कभी-कभी तो रास्ते के लिए टोले वालों के बीच आपस में झगड़ा भी हो जाता है.

बरसात के दिनों में तो समझिए कि सारे टोले वाले नज़रबंदी की स्थिति में होते हैं. बच्चों का स्कूल आना-जाना भी बंद हो जाता है. कैसे जाएंगे बच्चे स्कूल, इतना पानी होता है चारो ओर कि वो डूब जाएंगे.

दो महीने पहले जब एक रात बांध टूटने का हल्ला हुआ तो हमारे टोले के लोगों ने जो भी अनाज उनाज था उसकी गठरी-मोटरी लेकर उंची जगहों की ओर भागने लगे थे. उन्होंने अपने मवेशियों की रस्सी भी खोल दी थी.

बाढ़ के बाद सरकार की ओर से रिलीफ़ बंटने की घोषणा हुई. कई वार्डों में रिलीफ़ बटे भी. पर हमारे वार्ड के लोग आज भी रिलीफ़ के इंतजार में हैं. उनमें बहुत गुस्सा है. पर क्या करें, मुखिया उनकी बात ही नहीं सुनता है. मैं सफ़र का कार्यकर्ता हूं गांव में. मैंने लोगों को कहा कि एक साथ इकट्ठा होकर चलते हैं सब लोग मुखिया के दरवाज़े पर लेकिन कुछ औरतों के अलावा लोग आगे आने को तैयार ही नहीं हैं. मर्द तो एक भी आगे आने को राजी नहीं हैं. ऐसी हालत में हम दो-चार कार्यकर्ता क्या कर सकते हैं.

सोमवार, 29 अक्टूबर 2007

सामुदायिक भवन

विजय सिंह

मेरे घर के सामने एक मंदिर है. ठीक उस मंदिर के सामने पी डब्‍ल्‍यू डी की सड़क गुज़रती है जो कि शहर की तरफ़ जाती है. तो मंदिर के सामने सड़क प दस-बारह क़दम चलने के बाद बायीं ओर एक सामुदायिक भवन है. देखने में तो नहीं लगता लेकिन बड़े-बूढ़े बताते हैं कि वह सामुदायिक भवन ही है. फिर मैं सोचता हूं कि जो सामुदायिक भवन हमारे गाँव में बनाया गया है वह किसलिए है. मैं जब भी उस सामुदायिक भवन को देखता हूँ तो सोचने लगता हूँ कि ये जब बना होगा तब किस उपयोग के लिए बना होगा, आज क्या उपयोग हो रहा है उसका.

जिन दिनों ये सामुदायिक भवन अपने गाँव में बनना शुरू हुआ होगा उन दिनों इसके आस-पड़ोस के लोग ये ही सोचते होंगे कि चलो ठीक है अब हमारे यहाँ कोई शादी होगी या कोई सभा या कोई प्रोग्राम करना होगा तो जगह की दिक़्क़त नहीं पड़ेगी. बारात को टिकाने के लिए जगह के बारे में सोचना नहीं होगा. अब तकलीफ़ नहीं होगी. लेकिन यहाँ तो उस सामुदायिक भवन में भैंस, गाय, बैल, बकरी, बांधी जाती है. सामने गोबर के ढेर हैं. कुछ समय पहले इस सामुदायिक भवन में मंदिर के महंथ के बेटे का मुर्गा-पालन का व्यवसाय चल रहा था. क्या इस उपयोग के लिए सरकार ने हमें ये सामुदायिक भवन दिया था? बारातियों की जगह भैंस, बकरी रहेंगे? क्या हमलोग मिलकर इस सामुदायिक भवन को खाली नहीं करा सकते हैं?

गांव के पुराने लोगों से पूछताछ पर पता चला कि जिस ज़मीन पर ये सामुदायिक भवन है वो मंदिर की है. मंदिर हमारे गांव की ही दुर्गा देवी ने बनवाया था. दुर्गा देवी नि:संतान थीं. उन्होंने गांव में मंदिर के अलावा तीन स्कूल भी बनवाए थी. आज उसी के खानदान का एक आदमी न केवल मंदिर का महंथ है बल्कि वह मंदिर की संपत्तियों का जमकर दोहन भी करता है. मंदिर की संपत्ति सरकारी संपत्ति है, लेकिन महंथ को इससे कुछ लेना-देना नहीं है. सुनने में तो ये भी आया है कि उसने कुछ ज़मीनें बेची भी है.

ख़ैर, जब हमने जब सामुदायिक भवन के बारे में पता करना शुरू किया तो गांव वालों से बड़े चौंकाने वाली जानकारी मिली.

पापा कहते हैं कि ये 1988-90 के आस-पास का बना है. जब ये बना था उस वक़्त हमारे गाँव का मुखिया कोई शैलेन्द्र सिंह था. सुनने में आया है कि इस सामुदायिक भवन का टेंडर किसी मोती ठाकुर के नाम मिला था. लेकिन राजपूतों के वर्चस्व वाले इस गांव में मोती ठाकुर जैसे लोहार की क्या हैसियत थी! मंदिर के महंथ ने ही मोती ठाकुर के नाम पर सामुदायिक भवन के निर्माण कार्य को अंजाम दिया. यानि असली ठीकेदार तो महंथ ही था. एक बुजुर्ग ने बताया कभी भी सामुदायिक भवन पूरी तरह से बना ही नहीं. खिड़की-दरवाज़े कभी लगे ही नहीं. प्लास्टर भी नहीं हुआ. आधा-अधूरा सामुदायिक भवन पशुशाला बन गया. कुछ लोगों ने तो कहा कि ये तो चोर-उचक्के का ठिकाना है.

देखा जाए तो हमारे गाँव में अभी पाँच-सात सामुदायिक भवन हैं. लेकिन ऐसा एक भी नहीं है जो वाक़ई समुदाय के काम आ सके. जहां बारात टिकाई जा सके या सभा-गोष्ठी ही की जा सके. क्योंकि सभी सामुदायिक भवन किसी न किसी के कब्ज़े में है. तो फिर क्या फ़ायदा इस सामुदायिक भवन का? जब यह आम जनता के उपयोग में आ ही नहीं रहा है तो क्यों इसको समुदायिक भवन हम कहें?

जिसके नाम से इस सामुदायिक भवन का काम मिला था वो बेचारा तो इस शोक से ही मर गया कि कहीं सरकार ने छान-बीन की तो वो फंस जाएगा. क्योंकि अभी तक वो सामुदायिक भवन का पूरा निर्माण नहीं हुआ वो काम भी अधुरा ही रह गाया और उसका पूरा बिल पास हो गया. ये तो है हमारे गाँव कि सामुदायिक भवन कि कहानी.

शनिवार, 20 अक्टूबर 2007

पुल गया ढुल बिल हुआ पास


अभय कुमार
हमारे गांव में एक बहुत पुरानी नदी है जिसे हम पुरानी बागमती के नाम से जानते हैं. पहले उसमें अच्छा-ख़ासा पुल था. क़रीब 12-13 साल पहले वह पुल ध्वस्त हो गया या कहें कि बाढ़ में टूट कर बह गया. बाद में सरकार की ओर से दुबारे पुल बनाने का निर्णय हुआ. गांव की जनता में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी क्योंकि पुल न होने पर लोगों को बाढ़ के दिनों में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता था.

हां, तो जब पुल बनाने की सरकारी घोषणा हुई तो हमलोग बहुत ख़ुश हुए. टेंडर हुआ. किसी बाहर के आदमी को यह काम मिला. उसने बड़े ज़ारे-शोर से इस पर काम करना शुरू किया. पर कुछ समय के बा धीरे-धीरे काम में ढिलाई होने लगी और एक समय के बाद वह रुक गया. ऐसा क्यों हुआ, ये तो मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम है. मैंने अपने तईं इसका कारण जानने की भरसक कोशिश की. मुझे जो जानकारी मिली उसके हिसाब से जिस ठीकेदार को यह काम मिला था उससे हमारे गांव के कुछ दबंग लोगों ने रंगदारी टैक्स के तौर पर दो लाख रुपए की मांग की. वह ठीकेदार रंगदारों की बात मानने से साफ़-साफ़ इंकार कर दिया. इससे क्षुब्ध होकर स्थानीय रंगदारों ने कार्यस्थल पर आकर काम रुकवा दिया, मज़दुरों के साथ मारपीट की और दो-तीन हवाई फ़ायरिंग भी की.

कुछ समय बाद ठीकेदार ने काम शुरू करवाने की कोशिश की लेकिन स्‍थानीय बदमाशों ने उसके सामने फिर वैसी ही मांग रखी और पैसा न देने की स्थिति में काम न करने देने और ठीकेदार के परिवार को तवाह करने की धम‍की दी. आज उस पुल का यह हाल है कि पुल बनाने के लिए जो औज़ार लाए गए थे वह कार्यस्थल के पास काफ़ी हद तक ज़मीन में धंस चुके हैं. कुछ छोटी-मोटी चीज़ें तो लोग उठाकर अपने-अपने घर ले गए या कवाड़ी वाले के हाथों बेच दिया. नदी की हालत ऐसी है थोड़ा भी पानी आ जाने की स्थिति में आवागमन अवरुद्ध हो जाता है. सुनने में यह भी आया है कि उस ठीकेदार का बिल भी पा हो चुका है और उसे पैसे भी मिल चुके हैं. इसलिए अगर कहें कि, ‘पुल गया ढुल, बिल हुआ पास इसी लिए बिहार है ख़ासमख़ास’ तो ग़लत नहीं होगा.

माई न पढ़े देई अ हमरा


अभय कुमार

मेरे घर के नजदीक नदी है. आजकल उसमें पानी है. पुल न होने की वजह से लोगों को पानी हेलकर ही उसे पार करना पड़ता है. एक दिन मैं जब अपने दफ़्तर से काम करके वापस लौट रहा था तो जैसे ही मैंने नदी के पास अपनी साइकिल का ब्रेक दबाया, मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बच्चा आसपास कविता गा रहा है ‘दादाजी ने लाए आम, दादी ने धुलवाए आम ... घास चबाती बकरी आयी ...’ मुझे लगा कोई बच्चा स्कूल से लौट रहा है. मैंने जैसे ही मुड़कर देखा तो मैं अचरज में पड़ गया. एक पांच-छह साल की बच्ची सड़क किनारे बैठकर कविता गा रही थी और उसके आसपास चार-पांच बकरियां चर रही थी.

मैंने उससे उसके मन की बात जानने की कोशिश की तो पहले तो उसने कुछ बोला ही नहीं. बाद में मैंने उसे प्यार से समझाया-बुझाया, फिर भी उसका डर ख़त्म नहीं हुआ. काफ़ी समझाने-बुझाने के बाद मैंने भय ख़त्म किया. फिर उसने अपना नाम बताय, ‘सोनी’. मैंने उससे पूछा कि क्या वो स्कूल जाती है? उसने कहा, ‘नहीं’. मैंने पूछा ‘क्यों’? उसने कहा, ‘हमर माई हमरा स्कूल न जाए देई छई. कहई छई स्कूल जाके तू कि करबे? तू बकरी चरो. अहिला हम स्कूल न जाई छी.’ फिर मैंने उससे पूछा कि उसने इतनी प्यारी कविता कहां से सिखी है? उसने जवाब में पूछा, ‘कविता कथि के कहई छई हम न जनइले.’ फिर मैंने उसे समझाते हुए कहा, ‘जे तू गवईत रहले हे अखनि उसे कविता होई छई, कहां से सिखले ई.’ उसके बाद वह बोली, ‘हमर भइया एक दिनमा इ पढईत रहई, उसे सुन के हम सिख गेली, उहे गवईत रहलि ह.’ मैंने उससे फिर पूछा, ‘तोहर मन न करई छउ पढ़े के’ तो वह बोली, ‘मन त करई अ पढ़े के लेकिन हमर माई न पढ़े जाए देई अ हमरा.’

उस छोटी-सी बच्च की बात सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी आंख खुल गयी हो, क्योंकि मुझे हमेशा लगता था कि मां-बाप तो चाहते ही हैं कि बच्चे पढ़ें पर बच्चे ही नहीं पढ़ना चाहते होंगे. मैंने उस लड़की को अपने घर का पता बताया और कहा, ‘तू बिहान से हमरा शिक्षाघर में आब, हम पढबउ तोरा.’

रविवार, 14 अक्टूबर 2007

मेरी भैंस देखी है आपने ...

विजय सिंह

28 सितंबर 2007

चार-पांच रोज़ से मुसलाधार बारिश हो रही है. इसकी निरंतरता को देखकर लगता है कि अभी कुछ दिन यही स्थिति रहने वाली है. हालांकि अब तक गांव में बाढ़ का पानी तो नहीं आया मगर बारिश से ही इतना पानी आ गया है कि लगता है कि बाढ़ आ गयी है. चारो तरफ़ पानी ही पानी. गांव से पानी निकलने के लिए कोई नाला ही नहीं है. और जहां कहीं नाला काट कर बनाया जाता है वहां सड़क ही काट देते हैं लोग जिससे आवागमन ठप ह जाता है. इसी वजह से न लोग रास्ता काटने देते हैं और न ही पानी गांव से निकल पाता है.

वैसे जब बारिश हो रही थी तो समूचे गांव का ध्यान उस बांध पर टिकी हुई थी जो टूटने वाला था. सबको ये लगने लगा था कि बांध तो गया, कोई इसे टूटने से नहीं रोक सकता. ऐसा इसलिए कि जब वर्षा होती है तब नदी में पानी बढ़ने लगता है. और जब पानी बांध के बराबर में आ जाए तो वह बांध को तोड़ेगा ही. उस दौरान बांध और उसके आसपास का नज़ारा देखकर रूह कांप उठती थी. तब बांध के अंदर उमड़ते पानी को देखकर लगता था कि अगर ये टूट गया तो न जाने कितने गांव हमेशा-हमेशा के लिए इसकी गोद में समा जाएंगे.

तब बांध में हो रहे रिसाव को रोकने के लिए या कमज़ोर स्थान पर रखने के लिए मिट्टी भी नहीं मिल रही थी, क्योंकि बरसात के कारण सब जगह पानी ही पानी था. कल्पना करके ही सिहरन पैदा हो जाती है कि अगर वैसी हालत में बांध टूटा होता तो क्या हालत हुई होती गांव की.

पर क्या हमलोग हमेशा ऐसे ही डर-डर के जिएं? हर वक़्त यही डर बना रहता है कि इस बार नहीं टूटा तो अगली बार ज़रूर टूट जाएगा बांध. इससे निजात पाने का कोई न कोई रास्ता तो होगा न?

उस रात की घटना की एक बात जब भी याद आती है तो जबरदस्त हंसी आती है. जिस रात बांध टूटने का अफ़वाह उड़ा उसके अगले रोज़ कुछ लोग गांव में घूम-घूम कर लोगों से पूछ रहे थे कि आपने मेरी भैंस देखी है, मेरी बकरी पर नज़र पड़ी है आपकी ... ?

असल में हुआ ये था कि उस रात बांध टूटने का जो हल्ला हुआ तो लोगों ने अपनी गाय, भैंस, बकरी वगैरह की रस्सी खोल दी थी ताकि पानी में डूबने से बचने के लिए ये मवेशी कहीं उंचे स्थान पर चले जाएं. और जब ये अफ़वाह साबित हुई तो अगले दिन खोज-ख़बर शुरू.

शनिवार, 13 अक्टूबर 2007

शिक्षाघर है खिचड़ीघर नहीं

अभय कुमार

उदयपुर से लौटकर आने के बाद मैंने सोचा कि यूं ही बैठे-बैठे जो दो घंटे मैं बर्बाद करता हूं, क्यों न वो समय शिक्षाघर को दूं. मेरे मन में शिक्षाघर की शुरुआत की बात आयी. मुझे यह विचार जच गया और मैंने अपने भतीजे-भतीजी और आस-पड़ोस के दो-चार बच्चों को लेकर यह काम शुरू कर दिया. धीरे-धीरे आसपास में यह बात फैली और बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. एक दिन मैं बच्चों को पढ़ा रहा था कि एक महिला आयी और मुझसे पूछने लगी, ‘हे अभय बउआ खिचड़ी कहिया से बनवबई? काहे कि ओतेक दूर जे जाइ छइ पढ़े से एतही चल अतई छौड़ा पढ़े आ एतही खिचड़ी खा लेतई. कि न?

मुझे थोड़ी हंसी आयी लेकिन मैंने अपनी हंसी रोककर उस महिला की भावना का कद्र करते हुए ठीक से समझाया. शिक्षाघर का मक़सद और तौर-त‍रीक़ा बताया और कहा, ‘इ शिक्षाघर हई, खिचड़ीघर न’.

+91 9835454830

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2007

बगिया

बीते नवंबर में सफ़र द्वारा बाल दिवस पर चलाए गए अभियान की रिपोर्ट

फर बच्चों की रचनात्मकता और सृजनशीलता के प्रोत्साहन के लिए कृतसंकल्प है। विगत सात महीनों के दौरान सफर दिल्ली सरकार आवासीय परिसर तिमारपुर और आस-पड़ोस के बच्चों के साथ विविध तरह की रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय है। इसी शृंखला की अगली कड़ी के तौर पर 14 नवंबर ‘बाल दिवस’ के मौक़े पर एक पंद्रह दिवसीय बाल-अभियान का संचालन किया गया।

पाँच नवंबर को इलाक़े के बच्चों ने स्थानीय मनोरंजन कक्ष में ए बैठक आयोजित की जिसमें 10 से 14 साल के पैंसठ बच्चों ने हिस्सा लिया, और यह तय किया कि बाल दिवस के अवसर पर कार्यक्रम किया जाए। उन्होंने यह बताया कि उनके लिए थिएटर, कहानी, कवित लेखन, चित्राकला इत्यादि पर रोचक कार्यशालाओं का आयोजन किया जाए।

12 नवंबर को बच्चों ने इलाक़े में प्रभात पेफरी निकाली। इसके बाद लगभग 30 बच्चों का एक दल जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में चल रहे इंडियन सोशल फोरम देखने गया। देश-विदेश में विभिन्न ांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों के जल, जंग, ज़मीन, पहचान समेत तमाम क़िस्म के मानवाधिकार आंदोलनों से वे रू-ब-रू हुए। बच्चें ने वहाँ एक रैली भी निकाली और दिल्ली में जारी सीलिंग की समस्या पर अपना नाटक 'बापू के तीनों बंदर' भी दिखाए।

19 नवंबर को 'बगिया: बाल उत्सव' रूप में इस अभियान का समापन हुआ। दिल्ली सरकार आवासीय परिसर के मुख्य पार्क में आयोजित इस कार्यक्रम में बच्चों ने 'खेल-खेल में', 'बापू के तीन बंदर', 'ानी रे पानी' तथा 'किस्सा कूड़े का' नामक नाटक के माध्यम से क्रमश: लिंगभेद, सीलिंग, जल और साफ-सफाई की समस्याओं की स्थानीय लोगों का ध्यान आकर्षित किया। दिलचस्प बात है कि ये चारों ही नाटक कार्यशालों के दरम्यान बच्चों ने ख़ुद ही तैयार किए थे। संवाद और निर्देशन भी उन्हीं का था। सफर के कार्यकर्ताओं ने मात्र ज़रूरत के समय उनकी सहायता की और उनके लिए अन्य सहयोग जुटाए. नाटकों के अलावा बच्चों ने रोज़मर्रा से जुड़े सरोकारों पर आधरित गीत और नृत्य भी प्रस्तुत किए।

बगिया की शुरुआत सुबह 11 बजे मनोरंजन कक्ष में आयोजित चित्रकारी कार्यशाला से हुई। बच्चों ने अपने दैनंदिन जीवन के अनुभवों को रंग और ब्रश के माध्यम से अभिव्यक्त किया। दोपहर ए बजे बच्चों ने सामूहिक भोज किया, जिसमें अपने-अपने घरों से लाए लज़ीज़ भोजन को उन्होंने आपस में बाँटकर खाया। भोजन के तुरंत बाद बच्चों ने राज्य द्वारा खड़ी की गयी सीमाओं पर बच्चों की प्रतिक्रिया पर आधारित बिनोद गनतारा की फिल्म 'हेडा-होडा' देखी और उस पर चर्चा की। बातचीत के दौरान बच्चों ने कहा कि ये फिल्म उनके माता-पिता को भी दिखायी जानी चाहिए। उसके बाद 'पर्यावरण और हम' विषय पर एक कार्यशाला आयोजित की गयी जिसमें 'वी फॉर यमुना' नामक एक संस्था के श्री विमलेन्दु झा ने फेसिलिटेटर की भूमिका अदा की। उन्होंने बड़े ही रोचक और दिलचस्प तरीक़े से पर्यावरण के विभिन्न रंगों पर बातचीत की और गाने भी गाए।

मुख्य कार्यक्रम का आगाज़ शाम साढ़े चार बजे से कॉलोनी के मेन पार्क में 'जिगरी' नामक बैंड के गायन से हुआ। जिगरी ने अडम गोंडवी, फैज़, दुष्यंत कुमार की कुछ नज्मों के अलावा विभिन्न आंदोलनों के गीत पेश किए। इसके बाद बच्चों ने मंच की बागडोर अपने हाथों में थामी।

कार्यक्रम के औपचारिक समापन से पूर्व गुरू गोबिंद सिंह इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में क़ानून के प्राधयापक श्री अनुज वक्ष, दिल्ली स्वास्थ्य सेवा में कार्यरत सुश्री जस्सी मैथ्यु, दिल्ली मिल्क स्कीम में असिस्टेंट मैनेजर श्री अमल कुमार सेन, सामाजिक कार्यकर्ता श्री शशिमोहन तथा गृहणी सुश्री अनीता ने बच्चों के बीच पुरस्कार वितरित किया।

सफ़र के दिल्ली संयोजक श्री गौतम जयप्रकाश ने बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए वातावरण तैयार करने की ज़रूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि आज परीक्षा में अधिक से अधिक अंक लाने के दवाब तले बच्चे इस क़दर पिस रहे हैं कि उन्हें अपनी सृजनात्मकता का एहसास भी नहीं हो पाता है। माता-पिता महानगर की आपाधापी में बच्चों की ज़रूरत का धयान नहीं रख पाते हैं। बच्चों की रचनात्मकता और सृजनशीलता को उचित अवसर प्रदान करना सफ़र का एक प्रमुख लक्ष्य है। उन्होंने कहा कि सफ़र की हरसंभव कोशिश होगी कि बच्चों के स्वस्थ विकास और स्कूली सबक के बोझ से हटकर उनकी सृजनशीलता को प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें मंच प्रदान किया जाए। 'बगिया' का आयोजन इस दिशा में एक महत्तवपूर्ण क़दम है।

दर्शकों तथा प्रतिभागियों का आभार व्यक्त करते हुए सफ़र लीगल सेल की संयोजिका एडवोकेट चंद्रा निगम ने 'वी फॉर यमुना' तथा 'डीए फ़्लैट्स रेजिडेंट्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन' को कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने कॉलोनी की महिलाओं से ख़ास तौर पर यह अपील की कि बच्चों के सपनों की दुनिया को साकार करने में वे बच्चों का साथ दें। बिन्नी, आकृति तथा रुचि ने कार्यक्रम का संचालन किया। राजन शर्मा, आदित्यनाथ, नरेश गोस्वामी, अविनाश कुमार, भावना, रजनीश कुमार, शिशुपाल सिंह, सोनू, चंचल, संगीता तथा अशोक कुमार के सक्रिय योगदान ने भी कार्यक्रम के सफल सन्चालन में अहम भूमिका निभायी।

प्रस्तुति: भावना



शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

बाढ़ और अफ़वाह II



बाढ़ और अफ़वाह की अगली किस्त विजय की डायरी से
8 सितंबर 2007

आज रात क़रीब आ बजे हमलोग एक दालान में बैठ कर क्रिकेट देख रहे थे। अचानक किसी की आवाज़ आई कि बाँध टूट गया है, वो भी अपने गाँव का। ह क्रिकेट छोड़कर दालान से बाहर निकले और देखने लगे कि कौन हल्ल कर रहा है। गाँव की तरफ़ से आवाज़ आ रही थी। सब अपने-अपने घर कि तरफ़ लपके। एक ही पल में भगदड़- मच गई। सब अपनी-अपनी जान बचाने के लिए इधर-उध भागने लगे। किसी को देखा कि अपना सामान लेकर वो कहीं ऊँचे स्थान पर जाकर बैठ गया, तो कुछ लोग खाने से लेकर पहनने तक का सामान लेकर किसी तरफ़ भागे जा रहे थे। कहीं से बच्चे की रोने कि आवाज़ आ रही थी तो कहीं से छत वाले मकानों की तरफ़ भागने की अपील। उस समय मैं सोचने लगा कि अब किया क्या जाएकैसे सब लोगों को बचाया जाए

तभी मेरे दिमाग़ में ये ख़याल आया कि आख़िर बाँध किस तरफ़ टूटा है उसका पता लगना ज़्यादा ज़रूरी है। मैं गाँव कि तरफ़ भागा। किसी से रोककर पूछना चाहा लोगों के पास इतना समय नहीं था कि वो मुझसे कुछ बात कर सकते। एक नौजवान अपनी बुढ़ी माँ को बाढ़ में डूबने से बचाने के लिए छत पर ले जा रहा था। किसी को देखा अपनी बच्ची को गोद में लेकर पड़ोसी के छत वाले घर की तरफ़ भाग रहा था। फिर मेरे दिमाग़ में एक ख़याल आया कि जिसका घर बाँध के पास है उससे फ़ोन करके पूछता हूँ कि क्या सही में बाँध टूट गया है। जब मैंने फ़ोन पर पूछा कि क्या सही में बाँध टूट गया है? तो वो बोला, ‘‘नहीं तो, कहाँ बाँध टूटा है! ये झूठी अफ़वाह है।’’ तब जाकर मेरी जान में जान आई और सब लोगों को बताया कि बाँध टूटा नहीं है। ये ग़लत अफ़वाह है। उसके बाद सब अपने-अपने घर में जाकर चैन से बैठे और सारा सामान वापस लाकर घर में रखे। ये तो उस रात कहानी है।

उदयपुर फ़िल्म मेकिंग वर्कशॉप से लौटने के बाद अपने-आप में मैंने कुछ बदला तो ज़रूर महसूस किया है। जब यहाँ आया तो लोग पूछते थे और अब भी पूछते हैं, कहाँ गया था? क्या सीख कर आया है?’’ जब वे मेरे हाथ में कैमरा देखते हैं तो पूछते हैं कि इससे मैं क्या करूँगा। तब बताता हूँ कि फ़िल्म बनाना सीख रहा हूँ। उसी के लिए शूटिंग कर रहा हूँ। जब लोग हमारी फ़िल्में देखते हैं तो पूछते हैं, ‘‘ये बनाकर क्या करोगे?’’ मेरे पास उनके सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं होता है। अपनी तरफ़ से कुछ उलट-सीधा समझा देता हूँ। मेरे कुछ दोस्तों ने इस वीडियो कैमरा का एक और उपयोग ये बताया, ‘‘तुम अपना फ़िल्म भी बना लेना और सरकारी कर्मचारी जो ग़लत तरीक़े से कोई काम करते हैं वो कैमरे की डर से नहीं करेंगे। कल बाढ़ राहत मिलेंगे है। सबको अनाज और पैसे बँटेंगे। तुम बाढ़ राहत पर फ़िल्म बनाना। कुछ शूटिंग वहाँ कर लेना सरकारी कर्मचारी से कुछ पूछकर उसको कैमरे में ले लेना। इससे फ़ायदा ये होगा कि वो कर्मचारी कैमरे के सामने न झूठ बोलेंगे और न ही कुछ चोरी करेंगे।’’

वैसे मैंने बाढ़ की कुछ शूटिंग की है। अगर मेरे कैमरे से गाँववासियों का और गाँव का थोड़ा-सा भी भला हो जाए तो मैं समझता हूँ कि कैमरा और मैं किसी काम आ सके। मैं चाहता हूँ कि इस गाँव की सूरत और सीरत बदलनी चाहिए। गाँव में जो अनपढ़ लोग हैं वो पढ़ें और यहाँ की क़ानून-व्यवस्था को जानें-समझें। सब मिलकर एक साफ़-सुथरा गाँव बनाएँ।

आभार: चन्दन शर्मा

बाढ़ और अफ़वाह


पिछले ढाई-तीन महीनों के दौरान उत्तर बिहार बुरी तरह बाढ़ से प्रभावित रहा. जान-माल की बर्बादी ने पिछले सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए. बाढ़ के दौरान गांव-जवार में बाढ़ के बारे में कैसे और कैसी अफ़वाहें फैलती हैं, और लोग उनको किस तरह लेते हैं - सफ़र, बिहार के कुछ साथी तरियानी छपरा , शिवहर से अपनी डायरी के कुछ पन्नों के माध्यम से हमसे साझा कर रहे हैं. पेश है अभय का पन्ना :

ठीक ग्यारह बज रहे थे। मैं बाज़ार एक दुकानदार के पास बैठा था। तभी हल्ला हुआ, ‘‘बाँध एकदम से टूटने के क़गार पर है।’’ फिर क्या था! सभी दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें बंद करने लगे। मैं जिस दुकानदार के पास बैठा था उसने भी झटपट अपनी दुकान बंद की और बोला, ‘‘अभय भाई मैं घर जा रहा हूँ। आप भी घर चले जाइए।’’ मैं कुछ नहीं बोला पाया एक दो मिनट के अन्दर सारी दुकानें बंद हो गईं। अब कुछ लोग अपने घर की तरफ़ चल ड़े और कुछ बाँध की ओर। मैं खड़ा-खड़ा सोचने लगा कि अब क्या करूँ। इतने में ही मेरा एक दोस्त मोटर-साइकिल से आया और बोल, ‘‘अभय यहाँ पर तुम क्या कर रहे हो बाँध टूटने वाला है? जल्दी से घर चलो। मैंने कहा, ‘‘अरे भाई मुझे घर जाना होता तो कब का चला गया होता।’’ मेरे दोस्त ने फिर कहा, ‘‘तो क्या बाढ़ में डुबोगे?’’ मैंने बोला, ‘‘हीं रे, काहे डरता है तू बाढ़ से, चल मेरे साथ। हम सब मिलकर बाँध को टूटने से बचाते हैं।’’ मेरा दोस्त एकदम से घबरा गया और बोला, ‘‘....... देख मेर भाई अगर तू बाँध को टूटने से बचाने की कोशिश करेगा तो चल मैं भी तेरे साथ हूँ, जो होगा देखा जाएगा। जब हम दोनों दोस्त बाँध पर पहुँचे तो वहाँ गज़ब का नज़ारा था। कोई अपने कंधे पर अनाज़ का बोरा लादे हुए इधर-से-उधर भाग रहा था तो कोई अपने मवेशियों को सुरक्षित स्थान की ओर ले जा रहा था। गाँव के कुछ नौजवान बोरे में मिट्टी भरकर वहाँ डाल रहे थे जहाँ पर बाँध कि स्थिति बहुत ही ख़राब थी। मैं और मेरे दोस्त भी उन नौजवानों की मदद में लग गए। इतने में बाँध की देख-रेख करने वाला गार्ड आया। वहाँ खड़े सभी लोगों ने उसे घेर लिया। सबका एक ही सवाल था उससे, ‘‘कहाँ है तुम्हारी प्रशासन? हम लोग अगर इस बाढ़ में बह जाते तो तुम लोग आते हमलोगों की लाशें उठाने। इतने में कुछ नौजवान पीटो-पीटोचिल्लाने लगे। लेकिन कुछ लोगों ने थोड़-थम कर दिया और लोगों की मेहनत रंग लाई। बाँध तत्काल टूटने से बच गया।

आभार: चन्दन शर्मा

गुरुवार, 27 सितंबर 2007

कमलेश्वर और हिन्दी में मीडिया लेखन: एक गोष्ठी

नयी कहानी पहली पंक्ति के अग्रणी लेखक तथा मीडिया लेखन में दमदार भूमिका अदा करने वाल साहित्यकार स्वर्गीय की स्मृति में सफ़र की ओर से विगत 18 फ़रवरी को तिमारपुर में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक श्री प्रभात रंजन और इतिहासकार एवं लेखक तथा 'दीवान-ए-सराय' श्री रविकान्त ने साहित्य के सामान्तर जनसंचार माध्यमों के लिए लेखन में एक समान दख़ल रखने वाले कमलेश्वर के लेखकीय जीवन के दोनों पहलुओं पर विस्तारपूर्वक चर्चा की थी. पेश है उसकी एक संक्षिप्त रपट:

प्रभात रंजन के मुताबिक़ कमलेश्वर ऐसे वक़्त में दूरदर्शन से जुड़े जब भारत में टेलीविज़न की पहुंच सीमित थी. उस दौर के तमाम साहित्यकार रेडियो के लिए काम में रुतबा महसूस करते थे और टीवी के लिए काम करना दोयम दर्जे का समझा जाता था. तब कौन जानता था कि आज के लगभग दस हज़ार करोड़ के मीडिया साम्राज्य का सिरमौर दूरदर्शन ही बनने वाला है. पॉप्युलर मीडिया के कार्यक्रम, भले ही ज्यादा देखे जाने वाले एकता कपूर की धारावाहिकें ही क्यों न हो, हममें से कितने लोग उनके पटकथा लेखकों को जानते हैं, परंतु चन्द्रकांता जैसे मेगा हिट धारावाहिक हो या मौसम, आंधी, अमानुष, सौतन, हरजाई, गृहप्रवेश, आदि फिल्में – पटकथा लेखक कमलेश्वर को कभी पहचान का संकट नहीं रहा. कमलेश्वर तथा मनोहर श्याम जोशी हिन्दी के ऐसे जाने-माने साहित्यकार हैं जिन्होंने ये साबित कर दिया जनसंचार माध्यमों में भी रचनात्मका की गुंजाइश है, जबकि प्रेमचंद जैसे मूर्धन्य साहित्यकार ने सिनेमा जगत को सृजनात्मकता के लिए दमघोंटू माहौल करार दिया था. मीडियाकर्मी-साहित्यकार के आयामों को समेटे हुए कमलेश्वर ने अगर कितने पाकिस्तान जैसा चित्रात्मक धटनाप्रधान उपन्यास लिखा है तो वहीं डाकबंगला, रेगिस्तान कृतियों के ज़रिए भी उन्होंने अपना लोहा मनवाया है. मीडिया में सफ़ल कमलेश्वर का सामाजिक सरोकार भी उतना ही उल्लेखनीय रहा है. उन्होंने 1984 में कानपुर में चार बहनों की सामूहिक आत्महत्या की विषयवस्तु पर आधारित व़त्तचित्र की पटकथा भी तैयार की. प्रभात रंजन के मुताबिक कमलेश्वर ने केवल टेलीविज़न या रेडियो के लिए ही नहीं लिखा, बल्कि अख़बारी लेखन में भी उनकी धाक लम्बे समय तक कायम रहेगी. और तो और उन्होंने छोटे-छोटे शहरों और दूर-दराज के गांवों में जबरदस्त पहुंच बना लेने वाले ‘दैनिक भास्कर’ और ‘दैनिक जागरण’ जैसे अख़बारों के शुरुआती संपादक की भूमिका भी निभायी. एक ठेठ राजस्थानी तेवर लिए तो दूसरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बोलियोंं में सना हुआ.

रविकान्त ने कहा कि कमलेश्वर भाषा के मामले में बेहद उदार थे. गंगा-जमुनी तहज़ीब कमलेश्वर के लेखन की बड़ी विशेषता थी. उन्होंने कहा, ‘कुछ भी नया करने के लिए बने-बनाए खांचों और वैचारिक दड़बों को तोड़ना पड़ता है और कमलेश्वर ने यह काम बख़ूबी किया.’ आज अंग्रेज़ी के मुक़ाबले हिन्दी में तकनीकी शब्दों की कमी है, और ऐसे में हमें हिन्दी-उर्दू के मिले-जुले शब्द भंडार को इस्तेमाल करने से नहीं हिचकना चाहिए. इससे हमारा शब्द भंडार और समृद्ध होगा. रविकान्त के अनुसार हिन्दी उर्दू के अल्फ़ाजों का जमकर इस्तेमाल करने वाले कमलेश्वर कॉपीराइट का भी जमकर विरोध करते हैं. कृष्णा सोबती और अमृता प्रीतम के बीच जिन्दगीनामा को लेकर हुआ विवाद हो या ऐसा ही कोई और प्रसंग, उन्होंने भाषा की राजनीतिक लड़ाई खड़ा करने वालों की जमकर खिंचाई की.

कमलेश्वर ऐसे महत्वाकांक्षी लेखक थे जिन्होंने जिस भी विधा में हाथ आज़माया उसको पूरी लगन और तन्मयता के साथ अंजाम तक पहुंचाया और कामयाबी हासिल की. उन्होंने हिन्दीभाषी लेखक के उस दुराग्रह को भी तोड़ा कि व्यावसायिक और कला सिनेमा के साथ रचनात्मक संतुलन नहीं कायम किया जा सकता है. वस्तुत: मनोहर श्याम जोशी और कमलेश्वर के निधन से हिन्दी जगत को बहुत बड़ी क्षति हुई है. आज मीडिया लेखन के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मीडिया संस्थानों में रचनात्मक लेखन को लेकर कोई पहल नहीं की जा रही है, और इस लिहाज़ से कमलेश्वर की कमी और खलती है जो न केवल संवेदनशील रचनाकार थे बल्कि अपने आप में एक संस्थान भी.

डीए फ़्लैट्स के निवासियों के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी इस परिचर्चा में भागीदारी की.

सोमवार, 24 सितंबर 2007

'सफ़र' और 'माटी' की प्रस्तुति: स्वयम्

21 सितम्बर, अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस के अवसर पर नयी दिल्ली में एक पांच दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन किया गया है. ‘कृति’ के तत्वाधान में आयोजित इ कार्यक्रम में कई सामाजिक एवं स्वैच्छिक भाग ले रही हैं.

भारत पर्यावास केन्द्र (इंडिया हैविटेट सेंटर), लोधी रोड स्थित पाम कोर्ट में चल रहे रहे इस कार्यक्रम में शांति-संदेशों से लैस पोस्टर औ फ़ोटो प्रदर्शनियों के अलावा विभिन्‍न सामाजिक मसलों पर कार्यरत् संस्थाओं द्वारा उनके कामों से संबंधित कामों की जानकारी से युक्त स्टॉल्स भी लगाए गए हैं.

‘सफ़र’ ने इस कार्यक्रम में अपनी सहयोगी संस्था ‘माटी’ के साथ मिलकर पे किया 'स्वयम्', मिथकीय प्रसंग महिषासुर मर्दिनी की पुनर्व्याख्‍या.

मिथकों में कहा गया है कि दुर्गा की उत्पत्ति आसुरी शक्तियों का विनाश करने के लिए हुई थी. महिषासुर नामक दानवों के राजा को कई वर्षों की तपस्या के बाद ब्रह्मा ने वरदा दिया था कि कोई भी देवता या मानव (नर) उसका वध नहीं कर पाएगा. इस वरदान के घमंड में इतना चूर हो गया कि वह पूरी दुनिया पर शासन करने का ख़्वाब देखने लगा, और पूरी दुनिया को आतंकित करना शुर कर दिया. तीनों लोकों में भय और दहशत का माहौल पैदा हो गया. देवता भी उससे मुक़ाबला करने में असफल रहे. आखिरकार उन्होंने त्रिदे यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास जाकर महिषासुर के आतंक से आज़ाद कराने की विनती की. कोई स्त्री ही उसका संहार कर सकती थी यह जानकर तीनों देवताओं ने अपनी उर्जा से देवी यानी दुर्गा का सृजन किया, और उसे अस्त्र-शस्त्र से लैस किया. रूद्र ने अपना त्रिशुल, विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र, ब्रह्मा ने अपना कमंडल और इंद्र ने वज्र आदि हथियारों से देवी को सुसज्जित किया. और फिर संग्राम में सामने आने पर दुर्गा ने त्रिशुल से महिषासुर का सीना भेदकर तीनों लोकों को असुरों के आतंक से मुक्त कराया.

आधुनिक युग में भी स्त्रियों को तरह-तरह की आसुरी शक्तियों का मुक़ाबला करना करना पर रहा है. हर क्षेत्र में स्त्रियां असुरक्षित हैं. घर-परिवार, या समाज या फिर कार्यस्थल : शोषण जारी है. छेड़खानी, बलात्कार, तेज़ाब से हमला, दहेज़-हत्या, या फिर गर्भ में मादा भ्रूण हत्याएं ... फ़ेहरिस्त अंतहीन है.

अत: महिलाओं को ही फिर से इस राक्षस का अंत करना होगा. आज की स्त्रियां बेहद उर्जावान है, आत्म-सम्मान, शिक्षा, चेतना तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता से लैस हैं, असुरों का बध करने में सक्षम हैं और ये सिद्ध कर सकते हैं कि वो अदि-शक्ति दुर्गा की वंशज हैं.