शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

शिक्षाघर है खिचड़ीघर नहीं

अभय कुमार

उदयपुर से लौटकर आने के बाद मैंने सोचा कि यूं ही बैठे-बैठे जो दो घंटे मैं बर्बाद करता हूं, क्यों न वो समय शिक्षाघर को दूं. मेरे मन में शिक्षाघर की शुरुआत की बात आयी. मुझे यह विचार जच गया और मैंने अपने भतीजे-भतीजी और आस-पड़ोस के दो-चार बच्चों को लेकर यह काम शुरू कर दिया. धीरे-धीरे आसपास में यह बात फैली और बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. एक दिन मैं बच्चों को पढ़ा रहा था कि एक महिला आयी और मुझसे पूछने लगी, ‘हे अभय बउआ खिचड़ी कहिया से बनवबई? काहे कि ओतेक दूर जे जाइ छइ पढ़े से एतही चल अतई छौड़ा पढ़े आ एतही खिचड़ी खा लेतई. कि न?

मुझे थोड़ी हंसी आयी लेकिन मैंने अपनी हंसी रोककर उस महिला की भावना का कद्र करते हुए ठीक से समझाया. शिक्षाघर का मक़सद और तौर-त‍रीक़ा बताया और कहा, ‘इ शिक्षाघर हई, खिचड़ीघर न’.

+91 9835454830

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा रोचक संस्मरण है. :)

Rakesh Kumar Singh ने कहा…

जी मुझे भी लगता है कि ये रोचक है. लिखने वालों ने बताया कि ऐसा तो उनके साथ हर रोज ही होता है. निश्चित रूप से इन्हें सराहा जाना चाहिए.