बुधवार, 5 नवंबर 2008

सफ़र की नयी शुरुआत

रंजय कुमार की रपट

समाज के वंचित तबकों को वैकल्पिक मीडिया और कानूनी जागरुकता के ज़रिए रचनात्मक सहयोग देने के लिए कृतसंकल्प स्वयंसेवी संस्था ‘सफ़र’ ने बीते दिनों अपने उत्तरी दिल्ली के वजीराबाद गांव स्थित कार्यालय में युवा कथाकार अभिषेक कश्यप और आशीष कुमार अंशु का कहानी पाठ आयोजित किया।
इस अवसर पर अभिषेक कश्यप ने अपनी कहानी ‘स्टेपिंग स्टोन’ और आशीष कुमार अंशु ने अपनी कहानी ‘एक्स वाई की कहानी’ का पाठ किया। मौके पर उपस्थित श्रोताओं ने दोनों कहानियों पर खुलकर अपनी राय सामने रखी।
‘स्टेपिंग स्टोन’ पर लंबी चर्चा करते हुए चंद्रा निगम ने कहा - ‘कहानी की शुरुआत इन दो पंक्तियों से होती है - ‘इस कहानी का संबंध बी. दास के जीवन में घटे एक छोटे-से वाक़ये से है।’ और ‘छोटे-छोटे वाक़ये हमें याद रहते हैं और यही हमारा जीवन होता है।’ बी. दास के जीवन में घटे मामूली वाक़यों से शुरू हुई यह कहानी आगे चलकर इतनी बड़ी हो जाती है कि पांव फिसलने लगता है। सचमुच आज पूंजीवाद एक डरावनी हकीकत में बदल चुका है, जिसका शिकार बी. दास के साथ-साथ वह नब्बे करोड़ लोग हैं, जो पत्थर में तब्दील हो गए हैं और दस करोड़ लोग इन नब्बे करोड़ लोगों के कंधे पर चढ़ कर एक ऐसे स्वर्ग में पहुंच गए हैं, जहां भूख, पीड़ा, पराजय, हताशा, बीमारी और बदबू नहीं... वहां जीवन हर क्षण उत्सव है... तेज रोशनी का चारों तरफ़ फैलता हुआ अंधेरा है...!’
भूषण तिवारी ने कहा - ‘यह पूंजीवाद के नृशंसता के प्रतिरोध की कहानी है।’
डॉ. अजीता राव ने आशीष के ‘एक्स वाई की कहानी’ की चर्चा करते हुए कहा - ‘यह स्त्री-पुरुष के जटिल अंतस्संबंधों की खूबसूरत कहानी है। जाने-पहचाने कथ्य का ट्रीटमेंट गजब का है।’
गोष्ठी के अंत में ‘सफ़र’ के सचिव, ‘मीडियानगर’ के संपादक और मीडियाकर्मी राकेश कुमार सिंह ने संस्था की भावी योजनाओं की जानकारी देते हुए कहा - ‘यह ‘सफ़र’ की एक नई शुरुआत है। मंडी हाउस और दक्षिणी दिल्ली के भव्य संस्कृति केन्द्रों के बरक्स उत्तरी दिल्ली में ‘सफर’ के इस अड्डे को हम एक आत्मीय संस्कृति केन्द्र के तौर पर विकसित करना चाहते हैं। हम जल्द ही दिल्ली के लेखकों-बुद्धिजीवियों से मिलकर यह आग्रह करने वाले हैं कि वे अपनी पसंद की चुनी हुई किताबें हमें भेंट करें, जिसे ‘सफर’ के वाचनालय में रखा जा सके। साथ ही यहां हम एक पुस्तक विक्रय केन्द्र भी शुरू करना चाहते हैं, जहां विविध विषयों पर प्रकाशित नई पुस्तकें उपलब्ध हों। इसके अलावा यहां हम समय-समय पर युवा चित्राकारों की प्रदर्शनी भी आयोजित करेंगे। वैकल्पिक मीडिया और वंचित तबकों की कानूनी सहायता पर केन्द्रित एक पाक्षिक अख़बार निकालने की भी हमारी योजना है।’

बाढ़ के दो महीने बाद सहरसा-सुपौल

सफ़र के एक दो सदस्‍यीय दल ने बीते अक्‍तूबर के दूसरे सप्‍ताह में बाढ़ग्रस्‍त सरहसा, सुपौल और मधेपुरा जिले का जायजा लिया. उसी यात्रा के दौरान ली गयी कुछ तस्‍वीरें आपसे साझा की जा रही है, शायद वहां के हालात को बता पाने में कामयाब हो पाएंगी ये तस्‍वीरें.

bihar floods after 2 months

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

मुस्तफ़ाबाद, दिल्ली में लड़कियों की शिक्षा

शमरीन दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं. मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा में उनकी गहरी दिलचस्‍पी है. पिछली गर्मियों में उन्होंने सफ़र के साथ मिलकर एक छोटा सा अध्ययन किया था. अध्ययन के अपने अनुभवों पर शमरीन ने एक रिपोर्ट तैयार की थी. शमरीन चाहती हैं कि आपलोग उनके काम पर अपनी राय दें ताकि उनको इस काम को आगे बढ़ाने में मदद मिल सकें.

मुस्तफ़ाबाद, पूर्वी दिल्ली में स्थित एक मुस्लिम बहुल इलाक़ा है। यमुना विहार, सी ब्लॉक के सामने मेन रोड के बायीं ओर लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद गंदे नाले के किनारे की बसावट, मुस्तफ़ाबाद पहुंचा जा सकता है। इस इलाक़े के ज़्यादातर लोग अनौपचारिक ढंग से छोटे-मोटे काम-धंधे करते हैं और दिल्ली की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान देते हैं। सरकारी संस्थाओं, मसलन नगर-निगम, विधान सभा, लोकसभा के लिए यहां के लोग प्रतिनिधि भी चुनते हैं पर इन संस्थाओं का यहां पर न के बराबर ही ध्यान जाता है। शिक्षा हो या स्वास्थ्य या अन्य मूलभूत ज़रूरतें : इस इलाक़े को देखकर लगता है जैसे धीरे-धीरे ये यहां अर्थहीन हो रही हैं।
यह जानकर आपको कैसा लगेगा की आज़ादी के साठ जश्न मना चुके इस देश में 50 फ़ीसदी से भी ज़्यादा माताएं

‘आपने अपनी लड़की को क्यों नहीं पढ़ाया’? उनका जवाब था, ‘पढ़ाया तो है।’ मैंने पूछा, ‘कहाँ तक’? उन्होंने कहा, ‘हिन्दी नहीं पढ़ाई है उर्दू और कुरान शरीफ़ पढ़ाया है’ मैंने पूछा ‘हिन्दी क्यों नहीं पढ़ाई?’ जवाब दिया ‘हम गाँव में रहते थे और वहाँ कोई स्कूल नहीं था।’ मैंने पूछा, ‘लेकिन यहाँ आने के बाद ...’ कहने लगे, ‘यहाँ आने के बाद लड़की काफ़ी बड़ी हो चुकी थी और फिर वो पढ़ नहीं सकती थी।’

कक्षा प्रथम में पढ़ने वाले अपनों बच्चों की सामान्य किताब का एक भी पाठ नहीं पढ़ा सकतीं। यह जानकर आपको और भी आश्चर्य होगा कि आज भी भारत जैसे देश में जहाँ शिक्षा के ऊपर इतना ध्यान दिया जा रहा है, प्रतिवर्ष करोड़ों रुपया शिक्षा के ऊपर ख़र्च किया जा रहा है, वहीं लगभग देश के 70 लाख बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते। आख़िर क्या कारण है इस सबके पीछे? मैंने यह जानने के प्रयास किया और इसके लिए मुस्तफ़ाबाद में एक छोटा-सा अध्ययन किया। मैं ख़ुद मुस्तफ़ाबाद में रहती हूं, जहाँ के लिए देश के किसी अन्य हिस्से की तरह ही शिक्षा का नारा तो है पर कोई शिक्षित नहीं। ख़ासकर पढ़ाई-लिखाई के मामलों में लड़कियों की स्थिति तो बेहद सोचनीय।
मेरा यह अध्ययन बहुत शुरुआती है। इसके लिए मैंने 15 दिनों तक अपने इलाक़े के विभिन्न घरों में जाकर किशोरियों, युवतियों और उनके माता-पिता के साथ यथासंभव बातचीत की। कहीं रेस्पॉन्स अच्छा मिला तो कहीं मुझे फालतू समझा गया। पर 15 दिनों के अपने काम के दौरान जो भी मैंने जो महसूस किया वही मैं इस पर्चे में साझा करने की कोशिश कर रही हूं।
शुरुआत मैंने अपनी ही गली से की। अपने पड़ोस में रहने वाली लड़की के माँ बाप से मैंने पूछा कि आपको बेटीयाँ कहाँ तक पढ़ी हैं? उन्होंने जवाब दिया, ‘एक पाँचवी तक और एक आठवीं तक’। मैंने पूछा, ‘ऐसा क्यों, आपने आगे क्यों नहीं पढ़ाया?’ कहने लगे, ‘हमने तो पढ़ाना चहा पर ये ख़ुद आगे पढ़ना नहीं चाहती।‘ मैंने दोनों लड़कियों से पूछा कि तुम आगे क्यों नहीं पढ़ी? जवाब था, ‘हम फेल हो गए थे’। फिर मैंने सोचा कि फेल हो जाना तो कोई कारण नहीं हो सकता न पढ़ाने का। मैंने जानने की बहुत कोशिश की पर उनका यही जवाब था कि फेल हो जाने के बाद पढ़ाई में मन नहीं लगता। मैंने सोचा फेल होने से पहले कौन-सा मन लगता था मन पढ़ाई में? मन लगता तो फेल ही क्यों होती। अब मन को कौन समझाए जो शिक्षा के बीच इतनी बड़ी बाधा है। ‘चलो छोड़ो’ मैं अपने मन को क्यों टेंशन दूँ मेरा मन तो लगता है। 
मैं आगे बढ़ी और एक दूसरे घर में पूछा कि ‘आपने अपनी लड़की को क्यों नहीं पढ़ाया’? उनका जवाब था, ‘पढ़ाया तो है।’ मैंने पूछा, ‘कहाँ तक’? उन्होंने कहा, ‘हिन्दी नहीं पढ़ाई है उर्दू और कुरान शरीफ़ पढ़ाया है’ मैंने पूछा ‘हिन्दी क्यों नहीं पढ़ाई?’ जवाब दिया ‘हम गाँव में रहते थे और वहाँ कोई स्कूल नहीं था।’ मैंने पूछा, ‘लेकिन यहाँ आने के बाद ...’ कहने लगे, ‘यहाँ आने के बाद लड़की काफ़ी बड़ी हो चुकी थी और फिर वो पढ़ नहीं सकती थी।’ मैंने कहा कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती आजकल तो सरकार ने इतनी सुविधाए दी हुई हैं कि आप जब चाहें तब पढ़ सकते हैं। इस बात के जवाब में उन्होंने मुझसे ही सवाल किया, ‘हमारे इलाक़े में ऐसी चीज़ों के लिए कितनी सुविधाए हैं, जवाब दो।’ मैं क्या जवाब देती। सच्चाई यही है कि इस इलाक़े में ऐसा कोई सरकारी या ग़ैर-सरकारी संस्थान नहीं है जहाँ पढ़ाई-लिखाई की बात तो दूर महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई, पेटिंग जैसे पारंपरिक काम ही सिखाए जाते हों। प्राइवेट संस्थान तो एक-दो हैं पर समस्या है उनकी आसमान छूती फ़ीस। फिर घरवाले ये सोचते हैं कि बेकार में इतनी फ़ीस देनी पड़ेगी, इससे तो अच्छा है कि लड़की घर में ही कुछ काम कर ले कम से कम चार पैसे तो आएंगे। 
अब मैं किसी और गली में पहुंची. मैंने दो-चार वैसे घरों में जिनमें लड़कियाँ थी, पूछताछ की। उस गली में एक लड़की रहती है उसका नाम भी ‘शमरीन’ है। वो मेरे साथ ही पढ़ती थी। हमने साथ-साथ नर्सरी में दाख़िल लिया था। आज मैं कॉलेज में सेकेंड इयर में हूँ और वो दसवीं से आगे नहीं पढ़ पाई। मैंने उससे भी पूछा ‘तू आगे क्यों नहीं पढ़ी?’ उसका जवाब था, ‘दसवीं में मेरी कम्पार्टमेंट आ गई थी, मैंने पेपर नहीं दिया।‘ मैंने पूछा, ‘पेपर क्यों नहीं दिया?’ बोली, ‘पेपर देकर भी क्या करती मैं, आगे नहीं पढ़ सकती।‘ मैंने कहा कि तू आगे पढ़ेगी तो तू नौकरी भी कर सकती है। उसने कहा, ‘इसीलिए तो पढ़ना नहीं चाहती क्योंकि मेरे घरवाले नौकरी नहीं करने देना चहते और जब मुझे नौकरी नहीं करनी है तो आगे पढ़कर क्या करूँगी।‘ हिसाब-किताब लायक़ बहुत पढ़ लिया। मैंने उसके माँ-बाप से पूछा, ‘आप क्यों इसे पढ़ने के लिए नहीं कहते?’ उन्होंने कहा, ‘पढ़ तो लिया दसवीं तक, बहुत है। वैसे भी ज़्यादा पढ़-लिख कर क्या करना है अब भी घर का ही काम करना है और शादी के बाद भी।’ उनकी बातों को सुनकर मैं सन्न रह गयी। किस प्राचीन युग में रह रहे हैं ये लोग! 
मैंने उसी गली के दो-चार और घरों में बात की। सबका कहना अलग-अलग था। किसी ने कहा कि स्कूल बहुत दूर है तो किसी ने कहा कि हम पढ़ाई का ख़र्चा नहीं उठा सकते क्योंकि इस महँगाई के ज़माने में गुज़ारा ही बड़ी मुश्किल से हो पाता है। 
शाम हो चुकी थी। मैं अपने घर वापस आ गई। मैंने ये सारी बातें अपने मम्मी-पापा को बताई। पापा ने कहा, ‘बेटा इस क्षेत्र में पढ़ाई का महत्त्व लोग नहीं समझते हैं। वैसे भी इस इलाक़े में ज़्यादातर मज़दूर ही हैं। यहां प्राइवेट स्कूलों की फ़ीस बहुत ज़्यादा है। जब तक सामर्थ्य होता है लोग-बाग अपने बच्चों को पढ़ा लेते हैं। किसी तरह छठी-सातवीं तक का ख़र्चा तो वो झेल लेते हैं पर आगे की पढ़ाई का ख़र्चा नहीं झेल पाते। सरकारी स्कूलों की हालत

एक बार जब मैं एक स्कूल में पहुँची तो मुझे गेट के बाहर ही रोक लिया गया। काफ़ी मिन्नतों के बाद भी मुझे अन्दर नहीं जाने दिया गया। इस बीच गेट से मैं स्कूल का नज़ारा देखती रही। हालांकि तब लन्च टाइम नहीं था फिर भी बच्चे मैदान में घूम रहे थे और टीचर्स गप्पे हांकने में मस्त थे। मैं बग़ल में खड़ी होकर स्कूल की छुट्टी होने का इन्तज़ार करती रही। छुट्टी के पश्चात स्कूल की कुछ छात्राओं से बातचीत की। पूछा, ‘तुम्हारे स्कूल में पढ़ाई नियमित रूप से होती है या नहीं, टीचर्स ठीक से पढ़ाते हैं या नहीं। उनका जवाब था कि ‘बाज़ी कोई ढंग से पढ़ाई नहीं होती, गणित में एक सवाल कराने के बाद सब अपने आप करने को दे देते हैं। बाक़ी विषयों में भी कुछ ऐसी ही हालत है। पढ़ने-सीखने के लिए बच्चे टीचर्स पर नहीं बल्कि गाइड पर ही आश्रित हैं।

तो इतनी ख़राब है कि लोग अपने बच्चों को वहाँ भेजने से बजाय घर में बिठाना ज़्यादा पसन्द करते हैं।‘
दूसरे दिन मैं एक और गली में गई। पाँच-छह घरों में पूछताछ की। ज़्यादातर लोगों के यही कहा कि ‘कम्पार्टमेंट आ गई थी फिर हमने आगे नहीं पढ़ाए’। मैंने कहा, ‘कम्पार्टमेंट का पेपर भी तो दिया जा सकता था, क्यों नहीं दिया?’ एक मां ने कहा, ‘आगे कितना भी पढ़ लो, पहली बात तो नौकरी नहीं लगती और दूसरी, कोई ससुराल वाला अपनी बहू से नौकरी करवाना नहीं चाहता।’ मैंने उनकी बात का जवाब दिया कि जब नौकरी लायक़ पढ़ाओगे तभी तो नौकरी लगेगी। दसवीं और बारहवीं कराने के बाद आप चाहते हो आपके बच्चे को नौकरी लग जाए और वो भी सरकारी? प्राइवेट तो आप कराना नहीं चाहते तो सरकारी नौकरी के लिए जितना ज़रूरी है, कम से कम उतना तक पढ़ाओ तो सही।‘ ससुराल वाले नौकरी नहीं कराना चाहते के जवाब में ‘मैंने कहा कि वो भी इंसान हैं उनकी भी बेटियाँ हैं। अगर उन्हें समझाया जाएगा तो वे ज़रूर मान जाएंगे। इस तरह अपने मन में कोई भी धारणा बनाना ग़लत है।‘ मेरी बातों का उन पर कोई असर पड़ा या नहीं: मैं नहीं जानती। 
मैं अगले घर में गई। वहाँ मैंने उस लड़की के माँ-बाप से पूछा कि आपकी बेटी तो दसवीं पास कर चुकी है, आपने उसे आगे क्यों नहीं पढ़ाया? उन महाशय को पता नहीं मेरी बातों से क्या लगा। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया सिर्फ़ इतना कहा कि ‘हम आगे नहीं पढ़ाना चाहते, ज़माना बहुत ख़राब है, कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो हमारी तो जिन्दगी ही बर्बाद हो जाएगी।‘ वे मुझसे और बात करने के मूड में नहीं थे। मैंने भी उन्हें परेशान नहीं किया। मन ही मन मैं ये सोचती रही कि इनकी समस्या यह है कि यहाँ स्कूल पास में नहीं है और दूर भेजना इन्हें गवारा नहीं। 
तीसरे दिन मैं एक और गली में गई। वहाँ पाँच-छह घरों में पूछताछ की। पता चला फिलहाल उनके बच्चे पढ़ रहे हैं। यहीं पास में प्राइवेट स्कूल में। मैंने कहा चलो अच्छी बात है। फिर मैंने पूछा ‘आगे और पढ़ाने का इरादा है?’ जवाब दिया, ‘ऊपर-वाला मालिक है।‘ तभी मुझे पता चल गया कि ये भी अपने बच्चों को आठवीं से ज़्यादा नहीं पढ़ाएंगे। क्योंकि स्कूल आठवीं तक ही है। और अगर ये आगे पढ़ाते तो ये नहीं कहते कि ऊपर-वाला मालिक है। फिर भी मैंने उनसे कहा कि वे अपने बच्चों को आगे और अधिक पढ़ाए। इसके बाद मैंने दो और घरों में बातचीत की। एक घर में एक लड़की थी जो साइंस साइड से पढ़ रही थी और भविष्य में एयरफ़ोर्स में जाना चाहती थी। जब मैंने उससे पूछा, ‘तू आजकल क्या कर रही है?’ उसने जवाब दिया ‘कुछ नहीं।’ मुझे समझ नहीं आया कि उसने ऐसा क्यों कहा। मैंने पूछा, ‘तू तो एयरफ़ोर्स में जाना चाहती थी, क्या हुआ?’ उसने कहा, ‘मैंने पड़ाई छोड़ दी।‘ मुझे बड़ी हैरानी हुई। मैंने पूछा, ‘लेकिन क्यूँ?’ उसने जवाब दिया, ‘बारहवीं में कम्पार्टमेंट आ गई थी, फिर मैंने पढ़ाई छोड़ दी।’ मैंने कहा पेपर भी तो दे सकती थी। ‘कम्पार्टमेंट आने के बाद पढ़ाई से मन हट गया और मैंने पढ़ाई छोड़ दी, और वैसे भी मेरे-माँ बाप भी मुझे सपोर्ट नहीं करते’, कहते-कहते वह रोने लगी। मैंने फिर आगे उससे कोई बातचीत नहीं की। अब मैं अगले घर में थी। पता चला यहां भी वही समस्या है ‘कम्पार्टमेंट’। फिर मैंने सोचा आगे ना पढ़ने का कारण बार-बार ‘कम्पार्टमेंट’ ही बताया जा रहा है लेकिन इस ‘कम्पार्टमेंट’ का कारण क्या हैं?
लगभग 15 दिनों तक मैं ऐसे ही लोगों से बातचीत करती रही। और इस बातचीत से ये निष्कर्ष निकला कि मेरे इलाक़े में आठवीं से ज़्यादा कोई लड़की पढ़ी-लिखी नहीं है। दो-चार ही हैं जिन्होंने हिम्मत करके दसवीं तक की पढ़ाई की हैं और दो-चार ही बारहवीं तक। बारहवीं से आगे पढ़ने वाली तो केवल तीन ही लड़कियाँ हैं जिनमें एक मैं हूँ।
मैं जहां तक समझती हूं, हमारे इलाक़े में पढ़ाई-लिखाई के मामले में लड़कियों के पिछड़ेपन के दो मुख्य कारण हैं: लोगों में जागरूकता की कमी, और संसाधनों का अभाव। 
अपने शोध के दौरान मैंने देखा कि ज़्यादातर लड़कियाँ कम्पार्टमेंट के चलते आगे नहीं पढ़ पातीं। पर मैं जब कम्पार्टमेंट के कारण पर सोचती हूं तो मुझे ये महसूस होता है कि बचपन से यदि बच्चियों के ज़ेहन में ये बात डाली जाएगी कि तुम्हें पढ़-लिख कर कुछ नहीं करना है, सिर्फ़ घर का काम करना है क्योंकि तुम लड़की हो, और लड़कियों को केवल घर का काम करना शोभा देता है - तो कहाँ से उनमें शिक्षा के प्रति उत्सुकता पैदा होगी। लड़कियां भी ये सोच लेती हैं कि हिसाब-किताब लायक़ ही तो पढ़ना है और उसके लिए ज़्यादा मेहनत की करने की क्या ज़रूरत है। 
शिक्षा के प्रति लड़कियों की उदासीनता का दूसरा सबसे बड़ा कारण है संसाधनों का अभाव। अपने अध्ययन के दौरान मैंने देखा कि इस इलाक़े में प्राइवेट स्कूलों की तो भरमार है (यहां यह बता देना ज़रूरी है कि ये प्राइवेट स्कूल कहीं से स्तरीय नहीं हैं। कई तो चार कमरों के मकान में चल रहे हैं। न क़ायदे के शिक्षक हैं और न क़ायदे की सुविधा। ज़्यादातर पैसे कमाने के धंधे हैं) पर प्राइवेट स्कूल केवल आठवीं तक ही हैं। आठवीं से आगे पढ़ने के लिए लोग अपने बच्चों को दूर भेजना पसन्द नहीं करते। इस इलाक़े के में तीन-चार सरकारी स्कूल हैं। एक बारहवीं तक और बाक़ी दो-तीन दसवीं कक्षा तक। इन स्कुलों की हालत भी ऐसी है कि माँ-बाप अपनी बच्चियों को वहाँ भेजना पसन्द नहीं करते। पड़ोस के यमुना विहार के सरकारी स्कूलों में या तो दाखिला मिल नहीं पाता या दूर होने के कारण माँ-बाप अपने बच्चों को वहां भेजना नहीं चाहते। लड़कियों की शिक्षा के मामले में ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की कोशिशें भी मुस्तफ़ाबाद में न के बराबर ही दिखती हैं।
शोध के दौरान मैंने कुछ सरकारी स्कूलों का भी सर्वेक्षण किया। एक बार जब मैं एक स्कूल में पहुँची तो मुझे गेट के बाहर ही रोक लिया गया। काफ़ी मिन्नतों के बाद भी मुझे अन्दर नहीं जाने दिया गया। इस बीच गेट से मैं स्कूल का नज़ारा देखती रही। हालांकि तब लन्च टाइम नहीं था फिर भी बच्चे मैदान में घूम रहे थे और टीचर्स गप्पे हांकने में मस्त थे। मैं बग़ल में खड़ी होकर स्कूल की छुट्टी होने का इन्तज़ार करती रही। छुट्टी के पश्चात स्कूल की कुछ छात्राओं से बातचीत की। पूछा, ‘तुम्हारे स्कूल में पढ़ाई नियमित रूप से होती है या नहीं, टीचर्स ठीक से पढ़ाते हैं या नहीं। उनका जवाब था कि ‘बाज़ी कोई ढंग से पढ़ाई नहीं होती, गणित में एक सवाल कराने के बाद सब अपने आप करने को दे देते हैं। बाक़ी विषयों में भी कुछ ऐसी ही हालत है। पढ़ने-सीखने के लिए बच्चे टीचर्स पर नहीं बल्कि गाइड पर ही आश्रित हैं। 
इस प्रकार मुझे समझ में आ गया कि आख़िर क्या कारण है कि माँ-बाप अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं भेजना चाहते हैं। फिर मुझे लगा कि शायद इन्हीं वजहों से लड़कियाँ अपनी शिक्षा पूरा नहीं कर पाती हैं। बहरहाल, कारण और भी हो सकते हैं लेकिन हक़ीक़त ये है कि अंतत: सज़ा की भागीदार तो लड़कियाँ ही बनती हैं। अब भविष्य में इंतज़ार उस वक़्त का है जब मुस्लिम समाज में पूर्ण जागरूकता आए, सरकारी स्कूलों की हालत में सुधार हो और माता-पिता की आर्थिक हैसियत भी थोड़ी बेहतर हो ताकि लड़कियाँ ठीक से अपनी शिक्षा पूरी कर सकें और अपने पैरों पर खड़ी हों। 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

बिहार बाढ़ पीड़ितों के साथ एकजुटता के लिए सामने आएं

बिहार फ़्लड रिलीफ़ नेटवर्क की ओर से बिहार के बाढ़ पीडितों के समर्थन में जारी अपील

प्रिय साथियों
बिहार के शोक के नाम से जानी जानेवाली कोसी नदी ने अपने साथ हुई छेड़छाड़ के प्रति अपना ग़ुस्सा दिखाते हुए तटबंधों को तोड़ दिया है। उत्तर बिहार के 15 ज़िले के लोगों की ज़िंदगी और रोज़गार पानी के धारों के साथ बह चली है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से राज्य के लगभग 30 लाख लोग अपने घर, रोज़गार और सम्मान से वंचित हो गए हैं। अपनी मेहनत से कमाकर खानेवाले लोग मुट्ठी-भर दाने के लिए मुहताज हो गए हैं। कार्यकर्ता और बचाव और राहत कार्य में जुटे गंभीर विश्लेषकों का मानना है कि मृतकों और प्रभावितों की संख्या का सही आकलन तभी लगाया जा सकता है जब बाढ़ उतर जाए और सारे लोग अपनी जगह पर वापस आ जाएं। इसकी संभावना भी कम ही दिखाई देती है क्योंकि अभी से लोग बड़ी संख्या में पनाह और रोज़गार की तलाश में दिल्ली, पंजाब और दूसरे छोटे-बड़े शहरों की ओर पलायन करने लग गए हैं। एक अख़बार के अनुसार 1 लाख हेक्टेयर या 2.5 लाख एकड़ की खेती तबाह हो गई है। इससे बिहार की पहले से बिगड़ी खाद्य-स्थिति पर और भी बुरा असर पड़ेगा और क्षेत्र की जनसंख्या को पोषित करने की क्षमता में तीव्र गिरावट निश्चित है।

दोस्तो, जैसे-जैसे बाढ़ के पानी के उतरने की ख़बर आ रही है मीडिया के लिए बाढ़ की ख़बर ग़ैर-ज़रूरी होती जा रही है। बिहार सरकार ने मान लिया है कि बचाव का काम पूरा हो चुका है और अब बचाव कार्य की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है। सरकार ने यह घोषणा भी कर दी है लेकिन बचाव और राहत कार्य से जुड़े एक प्रोफ़ेसर कार्यकर्ता ने सेना के एक महत्वपूर्ण अफ़सर के हवाले से कहा है कि अभी तक 3/4 लोग यहां-वहां बाढ़ के पानी में फंसे हैं और उनतक राहत का कोई सामान नहीं पहुंच रहा है।

अभी समय की मांग है कि सभी प्रभावित और बाढ़ में फंसे लोगों को बिना और समय गंवाए सुरक्षित जगहों तक पहुंचाया जाए। बाढ़ग्रस्त इलाक़ांे से यह ख़बर आ रही है कि बचाव और राहत कार्य में दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ बड़े स्तर पर भेदभाव किया जा रहा है। हम सभी का यह दायित्व है कि सरकारों और प्रशासन पर यह दबाव बनाया जाए कि वे जाति-धर्म और दूसरी सभी दीवारों को भूलकर सभी प्रभावित लोगों को देश का समान नागरिक मानकर अपनी सेवाएं पहुंचाएं।
दोस्तो, बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में राहत सामग्रियों की बेहद कमी है। कई सामाजिक संस्थाओं, राज्यों की सरकारों और दूसरे समूहों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी को समझते हुए बाढ़ पीड़ितों के साथ अपनी एकजुटता का परिचय दिया है और राहत के कामों में जुटी हैं। लेकिन इस बाढ़ से जिस स्तर की तबाही आई है उससे लड़ने के लिए इतना सहयोग काफ़ी नहीं है। बिहार की सरकार द्वारा कोसी नदी तटबंध के टूटने के पहले और बाद में जिस तरह की लापरवाहियां बरती गई हैं वे जगज़ाहिर हैं। बचाव और राहत कार्यों को पूरा करने में भी सरकार ने अपनी अक्षमता का खुलकर प्रदर्शन किया है। इन कारणों से सरकारी पुनर्निर्माण की संभावनाएं भी शक के घेरे में आ जाती हैं। इसलिए जागरूक नागरिकों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि बचाव और राहत कार्यों पर कड़ी नज़र रखें और राहत सामग्री सही हक़दारों तक पहुंचे इसकी भी गारंटी करें।
दोस्तो, इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाढ़ का पानी जैसे-जैसे उतरेगा मानवीय अपील के कारण होने वाले राहत कार्य भी शिथिल पड़ते जाएंगे। पीड़ित लोगों की यादों में बाक़ी रह जाएंगी अपने अपनों, घर और रोज़गार की तबाही की तस्वीरें और एक ऐसा निराशाजनक भविष्य जो किसी का भी दिल दहला दे। इसलिए हमारी यह भी मांग होनी चाहिए कि सभी प्रभिावित लोगों का पूरा पुनस्र्थापन हो। जीवन और मानवता के पुनर्निर्माण के इस काम में हमें अपनी भूमिका भी तय करनी होगी। अगर हम इस काम में असमर्थ रहते हैं तो पलायन का एक ऐसा दौर चलेगा जो ग़रीबों के जीवन को और भी कठिन बना देगा और मानवाधिकारों की सभी लड़ाइयों को कमज़ोर कर देगा।
दिल्ली के सजग नागरिकों, कार्यकर्ताओं और सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने मिलकर बिहार फ़्लड रिलीफ़ नेटवर्क नाम से एक मंच बनाया है जो बाढ़ पीड़ितों के अधिकारों के लिए काम करनेवाले लोगों और संस्थाओं के कामों में अपना सहयोग दे रहा है। आप भी इस मोर्चे से जुडे़ं और बिहार के बाढ़ पीड़ितों के जीवन के पुनर्निर्माण के काम में अपना सहयोग सुनिश्चित करें।

ज़्यादा जानकारी के लिए संपर्क करें:
राकेश सिंह फ़ोनः 9811972872 ईमेलः rakeshjee@gmail.com
विनय सिंह फ़ोनः 9810361918 ईमेलः kumarvinaysingh@gmail
इश्तियाक़ अहमद फ़ोनः 9968329198 ईमेलः muktigami@gmail.com

मंगलवार, 1 जुलाई 2008

उसको भी भेजो स्‍कूल ...

यश भाई का ही एक और गीत, जो उन्होंने बच्चों को स्कूल भेजने के किसी अभियान के लिए लिखा था और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में ख़ूब गाया गया और आज भी विभिन्न शिक्षा अभियानों में इसे गाया जाता है.


सफ़र का सफ़र है ...

प्रिय भाई यश मालवीय ने सफ़र के लिए ख़ास तौर से ये गीत लिखा है. विवेक भाई ने इसकी धुन बनाई और आवाज़ भी दिया है. पेश है 'सफ़र का सफ़र है ...' के दो मुखड़े. आपकी राय का इंतजार रहेगा.

सोमवार, 30 जून 2008

आईआईटी के संघर्ष ने जगायी न्याय की उम्मीद

दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि IIT Delhi ने इस महीने की शुरुआत में 28 छात्रों को यह कहक संस्थान छोड़ने का नोटिस जारी किया कि उनका प्रदर्शन संस्था की साख से मेल नहीं खाती. बेहतर है कि समय रहते वे संस्थान छोड़ दें. जब तक यह बात जनता में आयी तब तक घटनाक्रम की एक परत और खुली और पता चला कि IIT, Delhi से निष्कासित किए गए छात्रों में अस्सी फ़ीसदी तो दलित हैं और शेष पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों से हैं. पीडि़त छात्रों का एक समूह केंद्रिय अनुसूचित/जनजाति आयोग का दरवाज़ा भी खटखटाया था, जिसके बाद आयोग ने आईआईटी प्रशासन से जवाब-तलब किया था और सुनवाई की अगली तारीख़ पर विस्तृत रपट पेश करने को कहा था.
22 जून को नयी दिल्ली में इनसाइट फ़ाउन्डेशन द्वारा बुलाई गयी एक बैठक में आईआईटी, दिल्ली के वैसे कुछ छात्रों ने संस्थान में दलित और पिछड़े तबक़े के छात्रों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में विस्तार से बताया था जिन्हें संस्‍थान ने कैंपस छोड़ देने का नोटिस दे चुकी है. तत्काल कैंपस न छोड़ने की स्थिति में उनसे 150 रुपए रोज वसूला जा रहा है . उन्होंने बताया कि उनकी जाति जानने के बाद शिक्षकों के तेवर अचानक कैसे बदल जाते हैं. अचानक कैसे शिक्षकों को यह लगने लगता है कि आरक्षण के सहारे आये इन मुट्ठी भर छात्रों के कारण इस प्रतिष्ठित संस्थान की साख में बट्ठा लग जाएगा. बस जाति खुल जाने की देरी है, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के तरीक़े इज़ाद करने में तो माहिर ही हैं अध्यापक और प्रशासन के लोग. और तो और हॉस्टल और मेस में काम करने वाले कर्मचारी भी पीछे नहीं रह जाते हैं दलित छात्रों को अपनी औकात का एहसास कराने में.
ताज़ा घटनाक्रम के बारे में छात्रों का कहना था कि शिक्षकों द्वारा ख़ास तौर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों को छात्रों को निशाना बनाने की यह कोई पहली घटना नहीं है. हर साल 3-4 बच्चों को कोई न कोई बहाना बनाकर संस्थान से निकाला जाता रहा है. इस बार मामला इसलिए बड़ा बन गया कि क्योंकि निष्कासित किए जाने वाले छात्रों की संख्या ज़्यादा थी. और ये छात्र फ़र्स्ट इयर से लेकर फ़ाइनल इयर तक के थे. छांत्रों ने ये बताया कि वहां कोई निश्चित परीक्षा प्रणाली नहीं है और न ही परीक्षा में पास होने के लिए कोई निर्धारि अंक. ऐसे में जम कर मनमानी करते हैं वहां के शिक्षक.
एक छात्र ने बताया कि जब भी छात्रों ने हॉस्टल में अंबेडकर जयंती मनाने की कोशिश की, प्रशास ने नाकाम कर दिया. आईआईटी, दिल्ली के एससी/एसटी इम्प्लॉयज वेलफ़ेयर एसोसिएशन के महासचिव नरेंद्र भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं, ''स्टूडेंट्स को छोडिये, ऐडमिनिस्ट्रेशन हमें नहीं मनाने देता था अंबेडकर जयंती यहां पर. पिछले दो-तीन सालों ने हमने लड़-झगड़ कर बाबा साहब की जयंती पर कार्यक्रम करना शुरू किया है.''
26 जून 200 को सफ़र, एनसीडीएचआर, नैक्डोर, इनसाइट फ़ाउण्‍डेशन, JNUSU के संयुक्त तत्वाधान में JUSTICE FOR IIT STUDENTS के बैनर तले छात्रों तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने आईआईटी ने विरोध प्रदर्शन किया. 26 जून का वो विरोध प्रदर्शन भारत के छात्र आंदोलन और दलित आंदोलन के लिए एक महत्तवपूर्ण तारीख़ बन गया. दुनिया में श्रेष्ठ इंजि‍नीयर पैदा करने का दावा करने वाले इस संस्थान के 40 साल के इतिहास में 26 जून को किया गया विरोध-प्रदर्शन अब तक वहां किया गया किसी भी तरह का पहला प्रदर्शन था. इसने प्रशासन के होश ठिकाने लगा दिए. छात्रों के भविष्य के साथ किए जा रहे खिलवाड़ का जवाब मांगने जब प्रदर्शनकारी आईआईटी कैंपस में पहुंचे तो उनकी तो हवा ख़राब हो गयी. पूरा प्रशासन हरकत में आ गया. थोड़ी देर में ऐडमिनि‍स्ट्रेटिव ब्लॉक पुलिस छावनी में तब्दील हो गया. महिला प्रदर्शनकारियों पर भी डंडा बरसाने की कोशिश की गयी और ये काम पुरुष सिपाही ही कर रहे थे.
प्रदर्शनकारियों ने जब छात्रों के निष्कासन का कारण पूछना शुरू किये तो स्टूडेंट वेलफेय एस आर काले और डिप्टी डायरेक्टर एच सी गुप्ता की हालत ख़राब हो गयी, उनके जबान लड़खलड़ानें लगे. अ........ के आगे बढ़ नहीं पाए. कक्षाओं और परीक्षाओं के इतर आईआईटी की रोज़मर्रा में छात्रों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में जब उनसे पूछा गया तो एक बार फिर उनकी घिघ्‍घी बंध गयी. बार-बार वे ये ही कहते रहे कि कमेटी बना दी गयी है, कमेटी का जो निर्णय होगा उसका वे पालन करेंगे. प्रदर्शनकारियों ने कहा कि जो कमेटी गठित की गयी है वो छात्रों को अमान्य है, उसमें उत्पीड़कों के नुमांइदे ही हैं. प्रदर्शनकारियों ने मांग की जो भी कमेटी गठित की गयी है उसे तत्काल भंग किया जाए और नयी कमेटी गठित की जाए और उसमें निष्पक्ष लोगों को शामिल किया जाए. प्रदर्शनकारियों ने इसके लिए आईआईटी प्रशासन को 5 दिन का समय दिया.
बहरहाल, दलित और पिछड़े तबके के छात्रों के इस निष्कासन और उसके बाद राजधानी में शुरू हुए हलचल से यह तो स्पष्ट हो गया है कि उच्च शिक्षा का यह प्रतिष्ठित संस्थान मनुवादियों का बहुत बड़ा अखाड़ा है जहां ये मेरिट के नाम पर समाज के दबे-कुचले तबक़े से आने वाले छात्रों के भविष्य के साथ खुलकर खेला जाता है. पर छात्रों ने जिस तरह इन मनुवादियों के खिलाफ़ मोर्चा खोला है, निश्चित ही भारतीय समाज पर उसका दूरगामी असर पड़ेगा.

बुधवार, 25 जून 2008

कल IIT दिल्ली में धरना

पिछले दिनों ख़बर आयी कि इस साल आईआईटी दिल्ली में वार्षिक परीक्षा में लगभग दो दर्जन छात्रों को फेल कर दिया गया है. यह भी पता चला कि वहां परीक्षा और परिणामों की कोई नियत पद्धति नहीं है. शिक्षक अपने हिसाब से पास होने के लिए न्यूनतम अंक तय करते हैं, जो उनकी मर्जी के हिसाब से घटता-बढ़ता रहता है. इस पास-फेल के गेम में वैसे बच्चों को खास तौर से टारगेट किया जाता है जो पिछड़े इलाक़ों और समुदायों से आते हैं. जबरन फेल किए गए एक छात्र ने बताया कि आईआईटी दिल्ली में परीक्षा-परिणाम की घो‍षणा नोटिस-बोर्ड पर नहीं की जाती है, छात्रों को व्यक्तिगत ई मेल या फ़ोन के ज़रिए उनके परिणाम बताए जाते हैं. ज़ाहिर है, परीक्षा-परिणाम की घोषणा का यह तरीक़ा और कुछ भी हो पर पारदर्शी तो नहीं ही कहा जा सकता है.
इस महीने की शुरुआत में लगभग दर्जन छात्रों को परीक्षा में फेल बताकर संस्थान छोड़ने का नोटिस जारी किया गया था. ऐसे ही कुछ छात्रों ने एससी/एसटी कमिशन में शिकायत दर्ज की थी जिसकी सुनावाई करते हुए विगत 17 जून को आयोग ने संस्थान के डायरेक्टर और डीन को तलब किया और अगली तारीख़ पर इससे मुताल्लिक रिपोर्ट पेश करने को कहा. उसके बाद से आईआईटी प्रशासन ने जबरन फेल किए गए छात्रों को बुलाकर धमकाना और तरह-तरह का प्रलोभन देना शुरू कर दिया है.
आईआईटी प्रशासन की धांधली और छात्रों के भविष्य के साथ किए जा रहे खिलवाड़ के खिलाफ़ विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों के छात्रों, शिक्षकों एवं दिल्ली के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कल दिनांक 26 जून 2008 को सुबह 10.30 बजे आईआईटी मेन गेट पर धरने का निर्णय लिया है. आप तमाम इंसाफ़ पसंद लोगों से आग्रह है कि इस धरने में शामिल हों और उच्च शिक्षा के इस संस्थान में प्रशासन के पक्षपातपूर्ण व्यवहार का प्रतिवाद करें.

मंगलवार, 24 जून 2008

सफ़र के नए स्टीकर

पिछले मार्च में सफ़र ने कुछ स्टीकर निकाले थे. जाति और दलित अधिकार जैसे संवेदनशील सवाल पर जनजागृति के लिए इनका इस्तेमाल किया जा सकता है. यदि आपको इनकी उपयोगिता नज़र आती है तो safar.delhi@gmail.com पर लिखें और ऑर्डर करें.





मंगलवार, 6 मई 2008

छूआछूत की परतें उघाड़ती फिल्म: इंडिया अनटच्ड

रेश गोस्वामी दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं और भारतीय समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) दिल्ली से संबद्घ पीएचडी फ़ेलो भी. कांवड़ संस्कृति पर बारीक निगाह थामे नरेशजी धर्म के कारोबार को समझना चाहते हैं . अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन भी करते हैं. ग़ज़ल उनका शौक है. चंद्रा निगम की पहल पर सफ़र द्वारा दिल्ली में 'इंडिया अनटच्ड' के प्रदर्शन भियान के दौरान नरेशजी ख़ास तौर फिल्म देखने दिल्ली युनिवर्सिटी के लॉ फैकल्टी गए. अगले ही दिन उन्होंने सामयिक वार्ता के लिए इसकी समीक्षा भी लिखी. तत्काल ही उन्होंने समीक्षा की एक प्रति सफ़र को उपलब्ध करा दी थी और कहा था ' जल्दबाज़ी होती तो कुछ और बातें लिखी जा सकती थीं जो बेहद ज़रूरी हैं'.




स्टालिन के. की डॉक्युमेंटरी फ़िल्म 'इंडिया अनटच्ड' भारतीय समाज में जाति की संरचना और उसकी उत्तर - जीविता को बहुत सुलझे हुए ढंग से सामने लाती है. देश के आठ राज्यों - पंजाब, केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, आँध्रप्रदेश , तमिलनाडु, गुजरात आदि तथा हिंदू, मुसलमान, सिक्ख और इसाई धार्मिक समाजों में जाति की जकडन, तज्जन्य सामाजिक वंचना अपमान के नैरेटिव बयान करती यह फ़िल्म भारत के शहरी मध्य वर्ग में व्याप्त एक गलतफहमी को आईना दिखाती है. नागरिक संस्थाओं की सुरक्षित और पी तुली दुनिया में रहने वाले लोग अक्सर ख़ुद को यह बात समझा कर मुतमईन से हो जाते हैं कि जाति अब कोई मुद्दा नही रह गई है. पर यह फ़िल्म दर्शक की आँख में ऊँगली डालकर बताती है कि देश में भले ही संविधान का शासन चलता हो पर समाज में आज भी जाति का ही राज कायम है .निर्देशक स्टालिन ने फ़िल्म में विवरणों को कुछ इस तरह संयोजित किया है कि थोडी देर बाद दर्शक भी जाति की बहस में शामिल हो जाता है .
'इंडिया अनटच्ड' जाति व्यवस्था के दो धुर्वो के बीच चलती है. इसके एक ध्रुव पर वे धार्मिक गुरु और कथित विद्वान आसन जमाएं बैठे हैं जो वर्णव्यवस्था /जाति व्यवस्था को स्वर्गिक और वैज्ञानिक सिद्ध करने के आवेग में फूहड़पन की स्वीकृत हदें भी पार कर जाते है तो उसके दूसरे ध्रुव पर निम्न जातियों के वे गरीब और सीधे सादे लोग है जिनसे मनुष्य होने की न्यूनतम गरिमा भी छीन ली गई है. जाति को श्रम विभाजन का अन्यतम रूप ानने वाले वाराणसी के एक संड-मुसंड विद्वान् तो जाति व्यवस्था की महानता को लेकर इतने आश्वस्त हैं कि बुनियादी शालीनता तक भूल जाते हैं. महोदय दलितों की बौद्धिक क्षमताओं पर तंज करते हुए पूछते हैं कि 'बताओ आज तक किसी दलित ने बोर्ड की परीक्षाओं में टॉप किया है'? मान्यवर की ज्ञान वर्षा यहीं नही रुकती . वह सवाल पूछ रहे निर्देशक को ज्ञान की मणि थमाते हुए कहते हैं : जो चपरासी बनने के ही लायक है वह और कुछ कैसे बन सकता है?
इन त्रिपुंड धारी विद्वान को जब बताया जाता है कि जाति व्यवस्था संविधान सम्मत नही है तो बड़े बेलौस ढंग से कह उठते हैं कि मैं तो इसे अपना संविधान मानता ही नही . इसी तरह कांची के शंकराचार्य जाति में निहित अमानवीयता के तत्व को गोल मोल करते हुए उच्च स्तरीय दार्शनिक लफ्फाजी में छिपकर कहते हैं कि जाति तो शरीर की होती है आत्मा की नही. ऐसे ही एक और वृद्ध विद्वान दर्शको का ज्ञानवर्द्धन करते हुए कहते हैं कि दुनिया के हर समाज में जाति की व्यवस्था किसी किसी रूप में पाई ही जाती है. यह देखकर थर्राहट होने लगती है कि ये धार्मिक विद्वान भारतीय समाज की इस मनुष्य विरोधी प्रवृत्ति को कितनी आसानी से प्राकृतिक और ईश्वरीय व्यवस्था कह डालते हैं. ऐसे लोगो को देखकर दर्शको के ज़हन में यह बात जरुर उठती है कि इस आपराधि सोच को फलने फूलने के संसाधन कहाँ से मिलते हैं .
जातिगत विषमताओं को वैध साबित करने वाली इन परम निंदनीय विभूतियों के आर्ष-वचनों के समानांतर निर्देशक स्टालिन दलित जातियों की उन जीवन-परिस्थितियों को भी आयत्त करते हैं जिनमें मनुष्य की गरिमा की बात तो दूर उसके आत्म तक का लोप हो जाता है. दर्शको को यह समझने के लिए बहुत माथा -पच्ची नहीं करनी पड़ती कि दरअसल उत्पीडितों के जीवन की भयावह परिस्थितियों के लिए यह शास्त्रवादी सोच ही जिम्मेदार है जो अपने लिए तो सभ्यता के सारे सुख सुरक्षित कर लेती है पर दलितों को मनुष्य बने रहने की भी मोहलत नही देती.
इस फ़िल्म की ख़ास बात यह है कि निर्देशक जातिगत उत्पीड़न भेदभाव को अन्तर- धार्मिक स्तर पर देखने की कोशिश करता है. फ़िल्म देखते हुए दर्शक की समझदारी दुरुस्त होती चलती है . इस क्रम में उसे पता चलता है कि दरअसल दलित मनुष्य की एक ऐसी श्रेणी है जो सिर्फ़ हिंदू या इस्लाम तक सीमित नही है. सच यह है कि भारत में हर धार्मिक समुदाय ने अपने भीतर लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या को दलित बना रखा है . यही कारण है कि धर्मग्रन्थों में सब मनुष्यों को बराबर कहा जाता है पर कब्रिस्तान में दफनाते वक़्त मुसलमान पमडिया,मंसूरी और सैय्यद में बँट जाता है और गुरुद्वारे में शरबत बाँटते वक़्त मजहबी या रविदासी सिखों को अलग दरवाजे पर खड़ा कर दिया जाता है .
'इंडिया अनटच्ड' एक्टिविस्ट तेवर की फ़िल्म है . यह कला की किसी बारीकबीनी में नहीं फंसती . वह बहुत संयमित स्वर और आग्रही अंदाज़ में जाति की विकृतियों को बेपर्द करती चलती है. यह चलते फैशन को भुनाने की गरज से बनी फ़िल्म नही है. अपने विवरणों, घटनाओं , पीडितों और उत्पीड्कों के साक्षात्कार तथा निर्देशक के मूल्य -बोध से मिलकर अंतत यह फ़िल्म लोकतांत्रिक समतापूर्ण समाज की एक दलील बन जाती है. फ़िल्म दर्शको पर जबरन कोई संदेश नहीं थोपती . वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के अंधेरे हिस्सों को दिखाती है . वंचना , उत्पीडन और भेदभाव के दृश्य रचती यह फ़िल्म दर्शकों को संवेदनशील तो बनाती ही है साथ ही उसे सचेत भी करती है कि लोकतंत्र हमारे यहाँ अभी महज़ चुनावी आयोजन तक ही सीमित है. इस अगली परियोजना समाज के उस नेतृत्व को घेरनी की होनी चाहिए जो वर्ण और जाति की व्यवस्था का खुलेआम समर्थन करता है .
'इंडिया अनटच्ड' को देखा और दिखाया जाना चाहिए . डॉक्युमेंटरी फिल्मों के साथ एक बड़ा संकट यह है कि उन्हें देखने दिखाने की कोई पुख्ता व्यवस्था नही है. अक्सर उन्हें ऐसे आलमी और अभिजात केन्द्रों पर दिखाया जाता है जहां मुद्दे पर अकादमिक रुचियाँ ज्यादा हावी हो जाती हैं . ऐसी फिल्में जनता के बीच व्यवस्थित ढंग से ले जानी चाहिए . सफ़र नामकएक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन ने इस फिल्म को दिल्ली की अदालतों और शिक्षण संस्थानों में दिखाने का जतन किया है. ऐसी फिल्में जनता के बीच जानी चाहिए.

साभार: सामयिक वार्ता, संपादन- योगेन्द्र यादव, मार्च 2008, नयी दिल्ली

नोट: फिल्म की कॉपी के लिए दिल्ली में दलित फाउंडेशन और सफ़र तथा अहमदाबाद में दृष्टि से संपर्क कर सकते हैं.