मेरे घर के सामने एक मंदिर है. ठीक उस मंदिर के सामने पी डब्ल्यू डी की सड़क गुज़रती है जो कि शहर की तरफ़ जाती है. तो मंदिर के सामने सड़क पर दस-बारह क़दम चलने के बाद बायीं ओर एक सामुदायिक भवन है. देखने में तो नहीं लगता लेकिन बड़े-बूढ़े बताते हैं कि वह सामुदायिक भवन ही है. फिर मैं सोचता हूं कि जो सामुदायिक भवन हमारे गाँव में बनाया गया है वह किसलिए है. मैं जब भी उस सामुदायिक भवन को देखता हूँ तो सोचने लगता हूँ कि ये जब बना होगा तब किस उपयोग के लिए बना होगा, आज क्या उपयोग हो रहा है उसका.
जिन दिनों ये सामुदायिक भवन अपने गाँव में बनना शुरू हुआ होगा उन दिनों इसके आस-पड़ोस के लोग ये ही सोचते होंगे कि चलो ठीक है अब हमारे यहाँ कोई शादी होगी या कोई सभा या कोई प्रोग्राम करना होगा तो जगह की दिक़्क़त नहीं पड़ेगी. बारात को टिकाने के लिए जगह के बारे में सोचना नहीं होगा. अब तकलीफ़ नहीं होगी. लेकिन यहाँ तो उस सामुदायिक भवन में भैंस, गाय, बैल, बकरी, बांधी जाती है. सामने गोबर के ढेर हैं. कुछ समय पहले इस सामुदायिक भवन में मंदिर के महंथ के बेटे का मुर्गा-पालन का व्यवसाय चल रहा था. क्या इस उपयोग के लिए सरकार ने हमें ये सामुदायिक भवन दिया था? बारातियों की जगह भैंस, बकरी रहेंगे? क्या हमलोग मिलकर इस सामुदायिक भवन को खाली नहीं करा सकते हैं?
गांव के पुराने लोगों से पूछताछ पर पता चला कि जिस ज़मीन पर ये सामुदायिक भवन है वो मंदिर की है. मंदिर हमारे गांव की ही दुर्गा देवी ने बनवाया था. दुर्गा देवी नि:संतान थीं. उन्होंने गांव में मंदिर के अलावा तीन स्कूल भी बनवाए थी. आज उसी के खानदान का एक आदमी न केवल मंदिर का महंथ है बल्कि वह मंदिर की संपत्तियों का जमकर दोहन भी करता है. मंदिर की संपत्ति सरकारी संपत्ति है, लेकिन महंथ को इससे कुछ लेना-देना नहीं है. सुनने में तो ये भी आया है कि उसने कुछ ज़मीनें बेची भी है.
ख़ैर, जब हमने जब सामुदायिक भवन के बारे में पता करना शुरू किया तो गांव वालों से बड़े चौंकाने वाली जानकारी मिली.
पापा कहते हैं कि ये 1988-90 के आस-पास का बना है. जब ये बना था उस वक़्त हमारे गाँव का मुखिया कोई शैलेन्द्र सिंह था. सुनने में आया है कि इस सामुदायिक भवन का टेंडर किसी मोती ठाकुर के नाम मिला था. लेकिन राजपूतों के वर्चस्व वाले इस गांव में मोती ठाकुर जैसे लोहार की क्या हैसियत थी! मंदिर के महंथ ने ही मोती ठाकुर के नाम पर सामुदायिक भवन के निर्माण कार्य को अंजाम दिया. यानि असली ठीकेदार तो महंथ ही था. एक बुजुर्ग ने बताया कभी भी सामुदायिक भवन पूरी तरह से बना ही नहीं. खिड़की-दरवाज़े कभी लगे ही नहीं. प्लास्टर भी नहीं हुआ. आधा-अधूरा सामुदायिक भवन पशुशाला बन गया. कुछ लोगों ने तो कहा कि ये तो चोर-उचक्के का ठिकाना है.
देखा जाए तो हमारे गाँव में अभी पाँच-सात सामुदायिक भवन हैं. लेकिन ऐसा एक भी नहीं है जो वाक़ई समुदाय के काम आ सके. जहां बारात टिकाई जा सके या सभा-गोष्ठी ही की जा सके. क्योंकि सभी सामुदायिक भवन किसी न किसी के कब्ज़े में है. तो फिर क्या फ़ायदा इस सामुदायिक भवन का? जब यह आम जनता के उपयोग में आ ही नहीं रहा है तो क्यों इसको समुदायिक भवन हम कहें?
जिसके नाम से इस सामुदायिक भवन का काम मिला था वो बेचारा तो इस शोक से ही मर गया कि कहीं सरकार ने छान-बीन की तो वो फंस जाएगा. क्योंकि अभी तक वो सामुदायिक भवन का पूरा निर्माण नहीं हुआ वो काम भी अधुरा ही रह गाया और उसका पूरा बिल पास हो गया. ये तो है हमारे गाँव कि सामुदायिक भवन कि कहानी.
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