अभय कुमार
उदयपुर से लौटकर आने के बाद मैंने सोचा कि यूं ही बैठे-बैठे जो दो घंटे मैं बर्बाद करता हूं, क्यों न वो समय शिक्षाघर को दूं. मेरे मन में शिक्षाघर की शुरुआत की बात आयी. मुझे यह विचार जच गया और मैंने अपने भतीजे-भतीजी और आस-पड़ोस के दो-चार बच्चों को लेकर यह काम शुरू कर दिया. धीरे-धीरे आसपास में यह बात फैली और बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. एक दिन मैं बच्चों को पढ़ा रहा था कि एक महिला आयी और मुझसे पूछने लगी, ‘हे अभय बउआ खिचड़ी कहिया से बनवबई? काहे कि ओतेक दूर जे जाइ छइ पढ़े से एतही चल अतई छौड़ा पढ़े आ एतही खिचड़ी खा लेतई. कि न?’
मुझे थोड़ी हंसी आयी लेकिन मैंने अपनी हंसी रोककर उस महिला की भावना का कद्र करते हुए ठीक से समझाया. शिक्षाघर का मक़सद और तौर-तरीक़ा बताया और कहा, ‘इ शिक्षाघर हई, खिचड़ीघर न’.
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2 टिप्पणियां:
अच्छा रोचक संस्मरण है. :)
जी मुझे भी लगता है कि ये रोचक है. लिखने वालों ने बताया कि ऐसा तो उनके साथ हर रोज ही होता है. निश्चित रूप से इन्हें सराहा जाना चाहिए.
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