गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

जननी

मैं
जननी इस संसार की
आज तलाश में
अपनी ही पहचान की
अपने ही पेट से
चार कंधो के इन्तजार तक !!!

पहचान मिली भी
तो आश्रित रहने की
बचपन में पिता पर
जवानी में पति पर
और बुढ़ापे में बेटे पर
पूरी उम्र आश्रित
अपनी ही पैदा की गई जात पर
आदमी पर!!!

कभी पहचान जताने के लिए,
गलियो से गुजरते हुए
निकालनी पड़ी मुझे
सुअर की आवाज,
तो कभी निकलना पड़ा
खुली रखे अपनी छाती,
तो कभी पहचान बता डायन
मनोरंजन किया गया सबका
घुमा कर नंगा, मुझे पूरा गाँव

इन सब का स्वार्थ
और झूटा सम्मान भी
बनाये रखना था मुझे ही,
तो कभी कोख से नीकालकर
तो कभी कोख में ही दी गई मेरी बली,
कभी रखा गया मुझे परदे में,
कभी किया बाल विवाह,
कभी बनी में सती,
कभी करवाया गया जौहर,
तो कभी समाना पड़ा पृथ्वी
और देनी पड़ी अग्नी परीक्षा
उस पुरुषोत्तम राम को
जिसको जरा भी शर्म नहीं आई थी
अहिल्या को पैर से छूटे हुए !!!

और छीना मेरा अस्तित्व
बना मुझे, कभी देवदासी, कभी जोगिनी
और कभी वैश्या,
मिटाने,
इनकी, इनके देवो की और
और इनके पुजारियो की
वासना की भूख !!!
और अब ये चरित्रहीन बोलने लगे की
मैं ही गड़ती हूँ परिभाषा
चरित्रहीनता की,
और देते हैं,
सभ्यता और सलीके की दुहाई
कि सांस भी खुलकर
नहीं लेनी मुझे !!!

और आज
सर उठाने, चलने और
गले से आवाज नकालने
तक के लिए,
जूझती मैं,
जूझती अपने प्रतिशत के लिए |
कभी
ठगी सी खड़ी
बीच, पुरुषों की जमात के
देखती
इस झूठे लोकतंत्र में
इस झूठी संसद में
होने को कोई फेंसला मेरे पक्ष में,
होने को कोई अनहोनी !!!

अभी खड़ी भी हूँ
अपने पैरो पर, तो
कोशिश में, ये
खीचने को तैयार जमीन
मेरो पैरो के नीचे से !!!

सुलगाए जा रही मैं तुम्हारे
इस दिलो दिमाग को
देने को आकार एक नई आग को...........


4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन!

अजय कुमार ने कहा…

पूरी उम्र आश्रित
अपनी ही पैदा की गई जात पर
आदमी पर!!!

समाज में नारी की स्थिति को बयां करती बेहतरीन
कविता

Rakesh Kumar Singh ने कहा…

शानदार पोस्‍ट पढाने के‍ लिए शुक्रिया दर्शनजी.

Ashi ने कहा…

thoughtful!