मंगलवार, 30 अक्टूबर 2007

बरसात में अनुसूचित जाति मोहल्ला


रामप्रवेश राम

मेरा घर गांव के सबसे आखिर में है. दरअसल यह अनुसूचित जाति का मोहल्ला है. बहुत पहले तो हमारे टोले के बाद कुछ ही घर उंची जाति वालों के थे. पर अब जैसे-जैसे उनका वालों बढ़ रहा है वे लोग और आगे हटकर अपना घर बना रहे हैं. पर हमारे टोले की स्‍थिति वैसी ही है. घरों की संख्या भी ज़्यादा नहीं बढ़ी है. हां दो-चार ईंट के मकान ज़रूर बन गए हैं. वो भी उन्हीं के, जिनके बच्चों ने गांव से निकल कर मेहनत-मज़दूरी की. दो पैसे जमा किए. पर ईंट के मकान दो-चार ही हैं. पर उनमें रहने वाले आज भी शरीर से मेहनत करते हैं, दिल्ली, लुधियाना, जलंधर, मुज़फ़्फ़रपुर जैसे छोटे-बड़े शहरों में रिक्शा खींचते हैं, दुकान में काम करते हैं ...

मेरे घर के आसपास हर साल अषाढ़ से कार्तिक तक वर्षा के कारण जलजमाव रहता है. टोले के लोगों को बहुत परेशानी होती है. मेरे घर से उत्तर दिशा में एक बांध है. हर साल बाढ़ के दिनों में उसके टूटने की आशंका बनी रहती है. कभी-कभी टूट भी जाती है. और जब बांध टूटती है तो हमलोगों को जी-जान लेकर इधर-उधर भागना पड़ता है. मुझे लगता है कि इस बांध को अगर नहीं बांधने दिया होता तो आज ये परेशानी नहीं होती.

हमारे टोले के चारो तरफ़ जलजमाव रहता है. पानी निकलने का कोई रास्ता है ही नहीं. इसके कारण टोले के लोगों खाने-पीने से लेकर स्वास्थ संबंधी बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. डायरिया तो बहुत आम बीमारी होती है बरसात के दिनों में. हर साल बरसात के मौसम में चारो तरफ़ पानी लगे होने के कारण पैदा होने वाली के बीमारी के चलते एक न एक मौत होती है. अकसर बच्चे मौत के शिकार बनते हैं. गांव में एक अस्पताल है. कहने को तो रेफ़रल हॉस्पिटल है, पर उसको देखकर आपको भी डर लगेगा. सुनसान पड़ा रहता है. मैं इसी गांव में रहता हूं पर मुझे भी नहीं मालूम कि डॉक्टर आता भी है कि नहीं. और आता है तो कब आता है. अब ऐसी हालत में साइकिल पर घुम-घुम कर डाक्टरी करने वाले के पास ही हमें भागना पड़ता है.

हमारे मवेशियों के लिए तो ये मौसम और भी तकलीफ़देह होता है. हम लोगों के पास भूसा जमा करने की न जगह है और न ही साधन, जिसके चलते बरसात के मौसम में चारे की कमी के कारण मवेशियों को बहुत तकलीफ़ होती है. बच्चा तो है नहीं कि एक रोटी के टुकड़े से उसका पेट भर जाएगा. ऐसी हालत में कभी किसी की बकरी तो कभी किसी की गाय तो किसी की बाछी की मौत हो जाती है.

हमारे टोले तक आने-जाने के लिए सड़क नहीं है. जिसके चलते शादी-ब्याह के दिनों में बहुत दिक़्क़त होती है. कभी-कभी तो रास्ते के लिए टोले वालों के बीच आपस में झगड़ा भी हो जाता है.

बरसात के दिनों में तो समझिए कि सारे टोले वाले नज़रबंदी की स्थिति में होते हैं. बच्चों का स्कूल आना-जाना भी बंद हो जाता है. कैसे जाएंगे बच्चे स्कूल, इतना पानी होता है चारो ओर कि वो डूब जाएंगे.

दो महीने पहले जब एक रात बांध टूटने का हल्ला हुआ तो हमारे टोले के लोगों ने जो भी अनाज उनाज था उसकी गठरी-मोटरी लेकर उंची जगहों की ओर भागने लगे थे. उन्होंने अपने मवेशियों की रस्सी भी खोल दी थी.

बाढ़ के बाद सरकार की ओर से रिलीफ़ बंटने की घोषणा हुई. कई वार्डों में रिलीफ़ बटे भी. पर हमारे वार्ड के लोग आज भी रिलीफ़ के इंतजार में हैं. उनमें बहुत गुस्सा है. पर क्या करें, मुखिया उनकी बात ही नहीं सुनता है. मैं सफ़र का कार्यकर्ता हूं गांव में. मैंने लोगों को कहा कि एक साथ इकट्ठा होकर चलते हैं सब लोग मुखिया के दरवाज़े पर लेकिन कुछ औरतों के अलावा लोग आगे आने को तैयार ही नहीं हैं. मर्द तो एक भी आगे आने को राजी नहीं हैं. ऐसी हालत में हम दो-चार कार्यकर्ता क्या कर सकते हैं.

सोमवार, 29 अक्टूबर 2007

सामुदायिक भवन

विजय सिंह

मेरे घर के सामने एक मंदिर है. ठीक उस मंदिर के सामने पी डब्‍ल्‍यू डी की सड़क गुज़रती है जो कि शहर की तरफ़ जाती है. तो मंदिर के सामने सड़क प दस-बारह क़दम चलने के बाद बायीं ओर एक सामुदायिक भवन है. देखने में तो नहीं लगता लेकिन बड़े-बूढ़े बताते हैं कि वह सामुदायिक भवन ही है. फिर मैं सोचता हूं कि जो सामुदायिक भवन हमारे गाँव में बनाया गया है वह किसलिए है. मैं जब भी उस सामुदायिक भवन को देखता हूँ तो सोचने लगता हूँ कि ये जब बना होगा तब किस उपयोग के लिए बना होगा, आज क्या उपयोग हो रहा है उसका.

जिन दिनों ये सामुदायिक भवन अपने गाँव में बनना शुरू हुआ होगा उन दिनों इसके आस-पड़ोस के लोग ये ही सोचते होंगे कि चलो ठीक है अब हमारे यहाँ कोई शादी होगी या कोई सभा या कोई प्रोग्राम करना होगा तो जगह की दिक़्क़त नहीं पड़ेगी. बारात को टिकाने के लिए जगह के बारे में सोचना नहीं होगा. अब तकलीफ़ नहीं होगी. लेकिन यहाँ तो उस सामुदायिक भवन में भैंस, गाय, बैल, बकरी, बांधी जाती है. सामने गोबर के ढेर हैं. कुछ समय पहले इस सामुदायिक भवन में मंदिर के महंथ के बेटे का मुर्गा-पालन का व्यवसाय चल रहा था. क्या इस उपयोग के लिए सरकार ने हमें ये सामुदायिक भवन दिया था? बारातियों की जगह भैंस, बकरी रहेंगे? क्या हमलोग मिलकर इस सामुदायिक भवन को खाली नहीं करा सकते हैं?

गांव के पुराने लोगों से पूछताछ पर पता चला कि जिस ज़मीन पर ये सामुदायिक भवन है वो मंदिर की है. मंदिर हमारे गांव की ही दुर्गा देवी ने बनवाया था. दुर्गा देवी नि:संतान थीं. उन्होंने गांव में मंदिर के अलावा तीन स्कूल भी बनवाए थी. आज उसी के खानदान का एक आदमी न केवल मंदिर का महंथ है बल्कि वह मंदिर की संपत्तियों का जमकर दोहन भी करता है. मंदिर की संपत्ति सरकारी संपत्ति है, लेकिन महंथ को इससे कुछ लेना-देना नहीं है. सुनने में तो ये भी आया है कि उसने कुछ ज़मीनें बेची भी है.

ख़ैर, जब हमने जब सामुदायिक भवन के बारे में पता करना शुरू किया तो गांव वालों से बड़े चौंकाने वाली जानकारी मिली.

पापा कहते हैं कि ये 1988-90 के आस-पास का बना है. जब ये बना था उस वक़्त हमारे गाँव का मुखिया कोई शैलेन्द्र सिंह था. सुनने में आया है कि इस सामुदायिक भवन का टेंडर किसी मोती ठाकुर के नाम मिला था. लेकिन राजपूतों के वर्चस्व वाले इस गांव में मोती ठाकुर जैसे लोहार की क्या हैसियत थी! मंदिर के महंथ ने ही मोती ठाकुर के नाम पर सामुदायिक भवन के निर्माण कार्य को अंजाम दिया. यानि असली ठीकेदार तो महंथ ही था. एक बुजुर्ग ने बताया कभी भी सामुदायिक भवन पूरी तरह से बना ही नहीं. खिड़की-दरवाज़े कभी लगे ही नहीं. प्लास्टर भी नहीं हुआ. आधा-अधूरा सामुदायिक भवन पशुशाला बन गया. कुछ लोगों ने तो कहा कि ये तो चोर-उचक्के का ठिकाना है.

देखा जाए तो हमारे गाँव में अभी पाँच-सात सामुदायिक भवन हैं. लेकिन ऐसा एक भी नहीं है जो वाक़ई समुदाय के काम आ सके. जहां बारात टिकाई जा सके या सभा-गोष्ठी ही की जा सके. क्योंकि सभी सामुदायिक भवन किसी न किसी के कब्ज़े में है. तो फिर क्या फ़ायदा इस सामुदायिक भवन का? जब यह आम जनता के उपयोग में आ ही नहीं रहा है तो क्यों इसको समुदायिक भवन हम कहें?

जिसके नाम से इस सामुदायिक भवन का काम मिला था वो बेचारा तो इस शोक से ही मर गया कि कहीं सरकार ने छान-बीन की तो वो फंस जाएगा. क्योंकि अभी तक वो सामुदायिक भवन का पूरा निर्माण नहीं हुआ वो काम भी अधुरा ही रह गाया और उसका पूरा बिल पास हो गया. ये तो है हमारे गाँव कि सामुदायिक भवन कि कहानी.

शनिवार, 20 अक्टूबर 2007

पुल गया ढुल बिल हुआ पास


अभय कुमार
हमारे गांव में एक बहुत पुरानी नदी है जिसे हम पुरानी बागमती के नाम से जानते हैं. पहले उसमें अच्छा-ख़ासा पुल था. क़रीब 12-13 साल पहले वह पुल ध्वस्त हो गया या कहें कि बाढ़ में टूट कर बह गया. बाद में सरकार की ओर से दुबारे पुल बनाने का निर्णय हुआ. गांव की जनता में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी क्योंकि पुल न होने पर लोगों को बाढ़ के दिनों में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता था.

हां, तो जब पुल बनाने की सरकारी घोषणा हुई तो हमलोग बहुत ख़ुश हुए. टेंडर हुआ. किसी बाहर के आदमी को यह काम मिला. उसने बड़े ज़ारे-शोर से इस पर काम करना शुरू किया. पर कुछ समय के बा धीरे-धीरे काम में ढिलाई होने लगी और एक समय के बाद वह रुक गया. ऐसा क्यों हुआ, ये तो मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम है. मैंने अपने तईं इसका कारण जानने की भरसक कोशिश की. मुझे जो जानकारी मिली उसके हिसाब से जिस ठीकेदार को यह काम मिला था उससे हमारे गांव के कुछ दबंग लोगों ने रंगदारी टैक्स के तौर पर दो लाख रुपए की मांग की. वह ठीकेदार रंगदारों की बात मानने से साफ़-साफ़ इंकार कर दिया. इससे क्षुब्ध होकर स्थानीय रंगदारों ने कार्यस्थल पर आकर काम रुकवा दिया, मज़दुरों के साथ मारपीट की और दो-तीन हवाई फ़ायरिंग भी की.

कुछ समय बाद ठीकेदार ने काम शुरू करवाने की कोशिश की लेकिन स्‍थानीय बदमाशों ने उसके सामने फिर वैसी ही मांग रखी और पैसा न देने की स्थिति में काम न करने देने और ठीकेदार के परिवार को तवाह करने की धम‍की दी. आज उस पुल का यह हाल है कि पुल बनाने के लिए जो औज़ार लाए गए थे वह कार्यस्थल के पास काफ़ी हद तक ज़मीन में धंस चुके हैं. कुछ छोटी-मोटी चीज़ें तो लोग उठाकर अपने-अपने घर ले गए या कवाड़ी वाले के हाथों बेच दिया. नदी की हालत ऐसी है थोड़ा भी पानी आ जाने की स्थिति में आवागमन अवरुद्ध हो जाता है. सुनने में यह भी आया है कि उस ठीकेदार का बिल भी पा हो चुका है और उसे पैसे भी मिल चुके हैं. इसलिए अगर कहें कि, ‘पुल गया ढुल, बिल हुआ पास इसी लिए बिहार है ख़ासमख़ास’ तो ग़लत नहीं होगा.

माई न पढ़े देई अ हमरा


अभय कुमार

मेरे घर के नजदीक नदी है. आजकल उसमें पानी है. पुल न होने की वजह से लोगों को पानी हेलकर ही उसे पार करना पड़ता है. एक दिन मैं जब अपने दफ़्तर से काम करके वापस लौट रहा था तो जैसे ही मैंने नदी के पास अपनी साइकिल का ब्रेक दबाया, मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बच्चा आसपास कविता गा रहा है ‘दादाजी ने लाए आम, दादी ने धुलवाए आम ... घास चबाती बकरी आयी ...’ मुझे लगा कोई बच्चा स्कूल से लौट रहा है. मैंने जैसे ही मुड़कर देखा तो मैं अचरज में पड़ गया. एक पांच-छह साल की बच्ची सड़क किनारे बैठकर कविता गा रही थी और उसके आसपास चार-पांच बकरियां चर रही थी.

मैंने उससे उसके मन की बात जानने की कोशिश की तो पहले तो उसने कुछ बोला ही नहीं. बाद में मैंने उसे प्यार से समझाया-बुझाया, फिर भी उसका डर ख़त्म नहीं हुआ. काफ़ी समझाने-बुझाने के बाद मैंने भय ख़त्म किया. फिर उसने अपना नाम बताय, ‘सोनी’. मैंने उससे पूछा कि क्या वो स्कूल जाती है? उसने कहा, ‘नहीं’. मैंने पूछा ‘क्यों’? उसने कहा, ‘हमर माई हमरा स्कूल न जाए देई छई. कहई छई स्कूल जाके तू कि करबे? तू बकरी चरो. अहिला हम स्कूल न जाई छी.’ फिर मैंने उससे पूछा कि उसने इतनी प्यारी कविता कहां से सिखी है? उसने जवाब में पूछा, ‘कविता कथि के कहई छई हम न जनइले.’ फिर मैंने उसे समझाते हुए कहा, ‘जे तू गवईत रहले हे अखनि उसे कविता होई छई, कहां से सिखले ई.’ उसके बाद वह बोली, ‘हमर भइया एक दिनमा इ पढईत रहई, उसे सुन के हम सिख गेली, उहे गवईत रहलि ह.’ मैंने उससे फिर पूछा, ‘तोहर मन न करई छउ पढ़े के’ तो वह बोली, ‘मन त करई अ पढ़े के लेकिन हमर माई न पढ़े जाए देई अ हमरा.’

उस छोटी-सी बच्च की बात सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी आंख खुल गयी हो, क्योंकि मुझे हमेशा लगता था कि मां-बाप तो चाहते ही हैं कि बच्चे पढ़ें पर बच्चे ही नहीं पढ़ना चाहते होंगे. मैंने उस लड़की को अपने घर का पता बताया और कहा, ‘तू बिहान से हमरा शिक्षाघर में आब, हम पढबउ तोरा.’

रविवार, 14 अक्टूबर 2007

मेरी भैंस देखी है आपने ...

विजय सिंह

28 सितंबर 2007

चार-पांच रोज़ से मुसलाधार बारिश हो रही है. इसकी निरंतरता को देखकर लगता है कि अभी कुछ दिन यही स्थिति रहने वाली है. हालांकि अब तक गांव में बाढ़ का पानी तो नहीं आया मगर बारिश से ही इतना पानी आ गया है कि लगता है कि बाढ़ आ गयी है. चारो तरफ़ पानी ही पानी. गांव से पानी निकलने के लिए कोई नाला ही नहीं है. और जहां कहीं नाला काट कर बनाया जाता है वहां सड़क ही काट देते हैं लोग जिससे आवागमन ठप ह जाता है. इसी वजह से न लोग रास्ता काटने देते हैं और न ही पानी गांव से निकल पाता है.

वैसे जब बारिश हो रही थी तो समूचे गांव का ध्यान उस बांध पर टिकी हुई थी जो टूटने वाला था. सबको ये लगने लगा था कि बांध तो गया, कोई इसे टूटने से नहीं रोक सकता. ऐसा इसलिए कि जब वर्षा होती है तब नदी में पानी बढ़ने लगता है. और जब पानी बांध के बराबर में आ जाए तो वह बांध को तोड़ेगा ही. उस दौरान बांध और उसके आसपास का नज़ारा देखकर रूह कांप उठती थी. तब बांध के अंदर उमड़ते पानी को देखकर लगता था कि अगर ये टूट गया तो न जाने कितने गांव हमेशा-हमेशा के लिए इसकी गोद में समा जाएंगे.

तब बांध में हो रहे रिसाव को रोकने के लिए या कमज़ोर स्थान पर रखने के लिए मिट्टी भी नहीं मिल रही थी, क्योंकि बरसात के कारण सब जगह पानी ही पानी था. कल्पना करके ही सिहरन पैदा हो जाती है कि अगर वैसी हालत में बांध टूटा होता तो क्या हालत हुई होती गांव की.

पर क्या हमलोग हमेशा ऐसे ही डर-डर के जिएं? हर वक़्त यही डर बना रहता है कि इस बार नहीं टूटा तो अगली बार ज़रूर टूट जाएगा बांध. इससे निजात पाने का कोई न कोई रास्ता तो होगा न?

उस रात की घटना की एक बात जब भी याद आती है तो जबरदस्त हंसी आती है. जिस रात बांध टूटने का अफ़वाह उड़ा उसके अगले रोज़ कुछ लोग गांव में घूम-घूम कर लोगों से पूछ रहे थे कि आपने मेरी भैंस देखी है, मेरी बकरी पर नज़र पड़ी है आपकी ... ?

असल में हुआ ये था कि उस रात बांध टूटने का जो हल्ला हुआ तो लोगों ने अपनी गाय, भैंस, बकरी वगैरह की रस्सी खोल दी थी ताकि पानी में डूबने से बचने के लिए ये मवेशी कहीं उंचे स्थान पर चले जाएं. और जब ये अफ़वाह साबित हुई तो अगले दिन खोज-ख़बर शुरू.

शनिवार, 13 अक्टूबर 2007

शिक्षाघर है खिचड़ीघर नहीं

अभय कुमार

उदयपुर से लौटकर आने के बाद मैंने सोचा कि यूं ही बैठे-बैठे जो दो घंटे मैं बर्बाद करता हूं, क्यों न वो समय शिक्षाघर को दूं. मेरे मन में शिक्षाघर की शुरुआत की बात आयी. मुझे यह विचार जच गया और मैंने अपने भतीजे-भतीजी और आस-पड़ोस के दो-चार बच्चों को लेकर यह काम शुरू कर दिया. धीरे-धीरे आसपास में यह बात फैली और बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. एक दिन मैं बच्चों को पढ़ा रहा था कि एक महिला आयी और मुझसे पूछने लगी, ‘हे अभय बउआ खिचड़ी कहिया से बनवबई? काहे कि ओतेक दूर जे जाइ छइ पढ़े से एतही चल अतई छौड़ा पढ़े आ एतही खिचड़ी खा लेतई. कि न?

मुझे थोड़ी हंसी आयी लेकिन मैंने अपनी हंसी रोककर उस महिला की भावना का कद्र करते हुए ठीक से समझाया. शिक्षाघर का मक़सद और तौर-त‍रीक़ा बताया और कहा, ‘इ शिक्षाघर हई, खिचड़ीघर न’.

+91 9835454830

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2007

बगिया

बीते नवंबर में सफ़र द्वारा बाल दिवस पर चलाए गए अभियान की रिपोर्ट

फर बच्चों की रचनात्मकता और सृजनशीलता के प्रोत्साहन के लिए कृतसंकल्प है। विगत सात महीनों के दौरान सफर दिल्ली सरकार आवासीय परिसर तिमारपुर और आस-पड़ोस के बच्चों के साथ विविध तरह की रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय है। इसी शृंखला की अगली कड़ी के तौर पर 14 नवंबर ‘बाल दिवस’ के मौक़े पर एक पंद्रह दिवसीय बाल-अभियान का संचालन किया गया।

पाँच नवंबर को इलाक़े के बच्चों ने स्थानीय मनोरंजन कक्ष में ए बैठक आयोजित की जिसमें 10 से 14 साल के पैंसठ बच्चों ने हिस्सा लिया, और यह तय किया कि बाल दिवस के अवसर पर कार्यक्रम किया जाए। उन्होंने यह बताया कि उनके लिए थिएटर, कहानी, कवित लेखन, चित्राकला इत्यादि पर रोचक कार्यशालाओं का आयोजन किया जाए।

12 नवंबर को बच्चों ने इलाक़े में प्रभात पेफरी निकाली। इसके बाद लगभग 30 बच्चों का एक दल जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में चल रहे इंडियन सोशल फोरम देखने गया। देश-विदेश में विभिन्न ांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों के जल, जंग, ज़मीन, पहचान समेत तमाम क़िस्म के मानवाधिकार आंदोलनों से वे रू-ब-रू हुए। बच्चें ने वहाँ एक रैली भी निकाली और दिल्ली में जारी सीलिंग की समस्या पर अपना नाटक 'बापू के तीनों बंदर' भी दिखाए।

19 नवंबर को 'बगिया: बाल उत्सव' रूप में इस अभियान का समापन हुआ। दिल्ली सरकार आवासीय परिसर के मुख्य पार्क में आयोजित इस कार्यक्रम में बच्चों ने 'खेल-खेल में', 'बापू के तीन बंदर', 'ानी रे पानी' तथा 'किस्सा कूड़े का' नामक नाटक के माध्यम से क्रमश: लिंगभेद, सीलिंग, जल और साफ-सफाई की समस्याओं की स्थानीय लोगों का ध्यान आकर्षित किया। दिलचस्प बात है कि ये चारों ही नाटक कार्यशालों के दरम्यान बच्चों ने ख़ुद ही तैयार किए थे। संवाद और निर्देशन भी उन्हीं का था। सफर के कार्यकर्ताओं ने मात्र ज़रूरत के समय उनकी सहायता की और उनके लिए अन्य सहयोग जुटाए. नाटकों के अलावा बच्चों ने रोज़मर्रा से जुड़े सरोकारों पर आधरित गीत और नृत्य भी प्रस्तुत किए।

बगिया की शुरुआत सुबह 11 बजे मनोरंजन कक्ष में आयोजित चित्रकारी कार्यशाला से हुई। बच्चों ने अपने दैनंदिन जीवन के अनुभवों को रंग और ब्रश के माध्यम से अभिव्यक्त किया। दोपहर ए बजे बच्चों ने सामूहिक भोज किया, जिसमें अपने-अपने घरों से लाए लज़ीज़ भोजन को उन्होंने आपस में बाँटकर खाया। भोजन के तुरंत बाद बच्चों ने राज्य द्वारा खड़ी की गयी सीमाओं पर बच्चों की प्रतिक्रिया पर आधारित बिनोद गनतारा की फिल्म 'हेडा-होडा' देखी और उस पर चर्चा की। बातचीत के दौरान बच्चों ने कहा कि ये फिल्म उनके माता-पिता को भी दिखायी जानी चाहिए। उसके बाद 'पर्यावरण और हम' विषय पर एक कार्यशाला आयोजित की गयी जिसमें 'वी फॉर यमुना' नामक एक संस्था के श्री विमलेन्दु झा ने फेसिलिटेटर की भूमिका अदा की। उन्होंने बड़े ही रोचक और दिलचस्प तरीक़े से पर्यावरण के विभिन्न रंगों पर बातचीत की और गाने भी गाए।

मुख्य कार्यक्रम का आगाज़ शाम साढ़े चार बजे से कॉलोनी के मेन पार्क में 'जिगरी' नामक बैंड के गायन से हुआ। जिगरी ने अडम गोंडवी, फैज़, दुष्यंत कुमार की कुछ नज्मों के अलावा विभिन्न आंदोलनों के गीत पेश किए। इसके बाद बच्चों ने मंच की बागडोर अपने हाथों में थामी।

कार्यक्रम के औपचारिक समापन से पूर्व गुरू गोबिंद सिंह इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में क़ानून के प्राधयापक श्री अनुज वक्ष, दिल्ली स्वास्थ्य सेवा में कार्यरत सुश्री जस्सी मैथ्यु, दिल्ली मिल्क स्कीम में असिस्टेंट मैनेजर श्री अमल कुमार सेन, सामाजिक कार्यकर्ता श्री शशिमोहन तथा गृहणी सुश्री अनीता ने बच्चों के बीच पुरस्कार वितरित किया।

सफ़र के दिल्ली संयोजक श्री गौतम जयप्रकाश ने बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए वातावरण तैयार करने की ज़रूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि आज परीक्षा में अधिक से अधिक अंक लाने के दवाब तले बच्चे इस क़दर पिस रहे हैं कि उन्हें अपनी सृजनात्मकता का एहसास भी नहीं हो पाता है। माता-पिता महानगर की आपाधापी में बच्चों की ज़रूरत का धयान नहीं रख पाते हैं। बच्चों की रचनात्मकता और सृजनशीलता को उचित अवसर प्रदान करना सफ़र का एक प्रमुख लक्ष्य है। उन्होंने कहा कि सफ़र की हरसंभव कोशिश होगी कि बच्चों के स्वस्थ विकास और स्कूली सबक के बोझ से हटकर उनकी सृजनशीलता को प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें मंच प्रदान किया जाए। 'बगिया' का आयोजन इस दिशा में एक महत्तवपूर्ण क़दम है।

दर्शकों तथा प्रतिभागियों का आभार व्यक्त करते हुए सफ़र लीगल सेल की संयोजिका एडवोकेट चंद्रा निगम ने 'वी फॉर यमुना' तथा 'डीए फ़्लैट्स रेजिडेंट्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन' को कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने कॉलोनी की महिलाओं से ख़ास तौर पर यह अपील की कि बच्चों के सपनों की दुनिया को साकार करने में वे बच्चों का साथ दें। बिन्नी, आकृति तथा रुचि ने कार्यक्रम का संचालन किया। राजन शर्मा, आदित्यनाथ, नरेश गोस्वामी, अविनाश कुमार, भावना, रजनीश कुमार, शिशुपाल सिंह, सोनू, चंचल, संगीता तथा अशोक कुमार के सक्रिय योगदान ने भी कार्यक्रम के सफल सन्चालन में अहम भूमिका निभायी।

प्रस्तुति: भावना