शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

कांशीराम और उत्तर भारत में दलित आन्दोलन: एक गोष्ठी

सफ़र ने विगत 5 नवंबर 2006 को तिमारपुर स्थित दिल्ली डमिनिस्ट्रेशन कॉलोनी मेंकांशीराम और उत्तर भारत में दलित आंदोलन' विषय पर एक गोष्ठी का आयोजन किया था. पेश है उसकी एक संक्षिप्त रपट:

सीएसडीएस में वरिष्ठ फ़ेलो श्री आदित्य निगम ने बातचीत की शुरुआत करते हुए कहा कि उत्तर भारत के राजनीतिक पटल पर कांशीराम के सामने तमाम कद्दावर नेता या हस्ती बौनी पड़ जाती है. डॉ आम्बेडकर के बाद 1980 से कांशीराम ने दलित सियासत को नया मोड़ दिया. उन्होंने आम्बेडकर का ज्यों का त्यों अनुसरण करने के बजाय उनकी उपलब्धियों और ग़लतियों, दोनो से सबक़ लिया. वे मौक़े तथा वक्त के हिसाब से नीतियां बनाने में माहिर थे. बहुजन समाज पार्टी के तहत मनु विरोधी दलित तथा पिछड़ों को संगठित करना सिर्फ उनके बूते की ही बात हो सकती थी. समाज के शोषित तबक़े के सामाजिक एवं राजनीकि उत्थान के लक्ष्य के बावजूद उन्होंने कभी भी दलित हितों के साथ समझौतावादी रवैया अख्तियार नहीं किया. इसी बिंदु पर बसपा समाजवादी पार्टी से स्वयं को अलग करती है. पहली बार 1993 में मायावती के सत्तारोहण के शिल्पकार कांशीराम ने दलित तबक़े को यह अहसास कराया कि वे भी राजनीति की कमान थाम सकते हैं. राजनीति के खेल में अल्पसंख्यक माने जाने वाले दलित अब ताल ठों कर कह सकते थे कि वे भी सत्ता के सिंहासन पर क़ाबिज़ होने का दम-ख़म रखते हैं. कांशीराम के आन्दोलन के फलस्वरूप दलितों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ.

विगत दशकों में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज़ होने के साथ चूंकि उच्च तथा सवर्ण वर्ग का पलायन शहारों की तरफ़ हुआ है, इसलिए अब गांवों में मुख्य रूप से दलित तथा पिछड़े वर्गों के बीच संघर्ष होने लगे हैं. आदित्य ने कांशीराम के बारे में मीडिया या समाज के एक हिस्से द्वारा अवसरवादी राजनीति करने का आरोप का खंडन करते हुए कहा कि कांशीराम का कहना था कि दलितों को तो अब तक अवसर ही नहीं मिला है, दलितों को अपनी राजनीति‍क और सामाजिक तरक़्क़ी के लिए जो भी अवसर मिले उसका इस्तेमाल ज़रूर करना चाहिए. कांशीराम की नीतियों की सराहना करते हुए श्री निगम ने कहा कि यदि वे उन अवसरों का इस्तेमाल नहीं करते जो उन्होंने उत्तर प्रदेश में किया तो आज बहुजन समाज पार्टी ताक़त नहीं होती. उनके मुताबिक़ कांशी राम बेहद ही सुलझे द्रष्टा थे. हिन्दुस्तान की सियासत में उनकी सोशल इंजीनियरिंग का कोई जोड़ नहीं है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थी श्री सतेन्द्र कुमार ने भी आदित्य की बात का समर्थन करते हुए 1993-94 को दलित राजनीति के लिए अहम दौर बताया क्योंकि पहली बार दलित और पिछड़ों को अपनी मजबूत राजनीतिक-सामाजिक हैसियत का अंदाज़ा हुआ. आम तौर पर भारतीय ग्राम जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसे, फलां गांव जाटों का है, फलां यादवों का तो फलां जाटवों का. प्रशासनिक काम-काज के लिए सवर्ण नेताओं, ग्राम सेवकों के सामने उन्हें हाथ जोड़ने पड़ते थे. सामुदायिक भवनों में, जलसों-बैठकों तक में उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता था. मगर 1993 के बाद से परिदृश्य तेज़ी से बदला है. दलितों के पास मायावती, कांशीराम जैसे सफल राजनीतिज्ञ मौजूद थे. अब वे भी पार्टी का परचम लहरा सकते थे, बैनर टांग सकते थे. उन्हें सरकारी काम-काज के लिए दलित स्वयंसेवकों और नेताओं की जमात हासिल होने लगी. दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं की दशा में भी सुधार हुआ. अब मतदान के प्रति उनका भी रुझान बढ़ा, क्योंकि उनके पास अब कांग्रेस और भाजपा के बरअक्स एक विकल्प मौजूद था.

गोष्ठी में डीए फ़्लैट्स रेसिडेंट्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन के श्री बिशनचंद्र, श्री बाबुलाल रमण तथा श्री रणवीर सिंह, सफ़र के शोध संयोजक श्री नरेश गोस्वामी, लीगल सेल की संयाजिका सुश्री चंद्रा निगम, मीडिया संयोजिका सुश्री भावना था विस्तार संयोजक श्री आदित्यना‍थ के अलावा बीबीसी हिन्दी सेवा से जुड़े पत्रकार श्री स्वदेश कुमार तथा डॉ. भीमराव आम्बेडकर कॉलेज की छात्रा सुश्री चंचल ने भी अपने विचार व्यक्त किए. गोष्ठी में आसपड़ोस के लोगों के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी हिस्सा लिया.

धन्यवाद ज्ञापन करते हुए सफ़र दिल्ली के संयोजक श्री गौतमजयप्रकाश ने कहा कि संस्था विगत आठ-दस महीनों से विभिन्न मसलोंपर इस इलाक़े में काम कर रही है. संस्था की यह कोशिश है किसामाजिक-सांस्कृतिक मसलों परहोने वाली गोष्ठियां केवलविश्वविद्यालयों, शोध- संस्थानों तथामंडी हाउस या कला दीर्घाओं केआसपास तक ही सिमट कर रहजाएं. इसी सोच के साथ सफ़र इलाक़ोंऔर गली-मोहल्लों में सामाजिकसरोकारों से जुड़े मसलों पर चर्चा, वाद-विवाद, गोष्ठी, इत्यादि कार्यक्रमोंका आयोजन कर रहा है और आगे भीकरता रहेगा.

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