पेश है उनके तजुर्बे की पहली किस्त:
देश की आजादी के साठ साल बाद भी कई ऐसे गांव हैं जहां पानी, बिजली, सड़क तो क्या लोगों को रहने के लिए झोपड़ी तक नसीब नहीं है और न ही खाने के लिए अनाज। विकास के बड़े-बड़े नमूनों, महानगरों की चमचमाते शॉपिंग मॉलों और चौड़ी काली सड़को से गुज़रते हुए जब आप इन गांवों में पहुंचेंगे तो आपके मन में एक ही सवाल उठेगा कि क्या ये भारत का ही हिस्सा है और दूसरा बड़ा सवाल कि क्या यहां लोग रहते हैं. लेकिन सच तो यही है कि ये सारे बदनसीब इलाके भारत का ही हिस्सा और यहां लोग रहते भी हैं। लेकिन कैसे ...
यही सब कुछ जानने-समझने के लिए सफ़र ने दिसंबर 2007 के अंत में दस दिन का सामुदायिक मीडिया शिविर ‘विकल्प’ का आयोजान किया. 22-31 दिसंबर के बीच शिवहर जिले के तरियानी छपरा गांव में संपन्न हुए इस शिविर का मुख्य उद्देश्य था मीडिया के विभिन्न माध्यमों का प्रयोग करते हुए वहां की स्थितयों को समझना और उसे देश के सामने लाना साथ ही इलाक़ाई स्तर पर मीडिया या जनसंचार के वैसे माध्यमों को खड़ा करना जिसमें कोई लागत न आए और अगर आए भी तो कम से कम. इस प्रकार सामाजिक जागरुकता का काम शुरू हो जहां लोग आसानी से अपनी बात रख सकें। सूचना के प्रति लोगों की समझ विकसित हो और वे अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हों।
अपने इस सोच को अंजाम देने के लिए सफ़र ने बिहार के सबसे अधिक पिछड़ा कहे जाने वाले तरियानी छपरा को चुना। यह इलाक़ा बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले से क़रीब 35 किलोमीटर दूर है. पता चला कि यह बाढ़ प्रभावित इलाक़ा है और हरेक साल बाढ़ से बेहिसाब तबाही होती रही है। सफ़र ने पूरी वस्तुस्थिति को समझने और अलग-अलग माध्यमों से हालात को सामने लाने के लिए देश के कई स्वयंसेवी संस्थाओं, समाजकर्मियों और समुदाय की बेहतरगी के लिए काम करने वाले लोगों को सूचित किया, उन्हें आमंत्रित किया कि वे इस पिछड़े इलाके में मीडिया को माध्यम बनाते हुए लोगों के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकारों के प्रति समझदारी पैदा करने में उसकी मदद करें। नतीजा वाकई चौंकाने वाला रहा। देस के क़रीब चौदह-पन्द्रह राज्यों के लोगों ने सम्पर्क किया और अंततः दिल्ली, गुजरात, बिहार, उत्तरांचल, महाराष्ट्र, झारखंड और बंगाल से लोग दस दिन के इस सामुदायिक मीडिया शिविर में भाग लेने पहुंचे। यह पहल अब सफ़र के टीम की पहल नहीं रह गयी थी बल्कि देश के अलग-अलग हिस्सों से आए लोगों की सामुदायिक पहल बन गई. 22 दिसम्बर से 30 दिसम्बर तक ‘विकल्प’ में भाग लेने आए दल के सदस्यों ने तरियानी छपरा, बिहार में वैकल्पिक मीडिया के ज़रिए सामाजिक जागरुकता का काम किया।
धीरे-धीरे भाषा सीखने के साथ वहां के लोगों के बीच काम करने का सिलसिला शुरू हुआ और विकल्प की टीम लोगों के बीच पहुंती। पहले दिन तो सारे लोग एक साथ पूरे गांव में घूमे, लोगों से बातचीत की और वापस हाई स्कूल स्थित अपने शिविर में आकर एक खांका तैयार किया कि कैसे क्या काम करना है. दूसरे दिन से पांच-पांच की टीम बनाकर अलग-अलग टोले में जाने लगे। वहां मोहल्ले को टोला कहा जाता है. इन टोलों के बंटवारे का आधार जाति है। इन टोलों की स्थिति जाति के हिसाब से तय होती है। और शहर में आकर हमारी ये धारणा टूटने लगी थी कि अब देश में जातीय संरचना टूट रही है, यहां आने पर एक बार फिर अफसोस होता है कि कैसे अभी भी लोग जातीय बंधनों में जकड़े हुए हैं।
दलित और पिछड़े समुदायों के टोलों में कई ऐसे बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जाते, कईयों ने बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी और छोटे-मोटे काम में लग गए। बाल मज़दूरी है। बच्चे जलावन की लकडियों के लिए दिन-दिन भर भटकते-फिरते हैं। ग्यारह-बारह साल के बच्चे गुजरात और गुडगांव मज़दूरी करने जाने को तैयार हैं, मां-बाप उन्हें पढाना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें इसका कोई सीधा लाभ समझ मे नहीं आता। कुपोषण की वजह से बच्चों में बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। एक तरह से कह लें कि उनसे उनका बचपन छीना जा रहा है।
लड़कियों की हालत बेहद चिंताजनक है। कई टोलों की लड़कियां लिखना-पढ़ना नहीं जानती, कभी स्कूल तक नहीं गई। मां-बाप उन्हें घर के कामों में लगाए रखते हैं। कुछ अभिभावको का मानना है कि सुरक्षा के लिहाज़ से ये इलाक़ा ठीक नहीं है। इनके साथ कुछ हादसा न हो जाए इसलिए इनको बाहर पढ़ने-लिखने नहीं भेजते। कईयों की शादी तो दस-ग्यारह साल में ही कर दी जाती है। यानि बाल-विवाह अब भी जारी है। कम समय में शादी होने और बच्चा पैदा करने के करण कई बार उनकी असमय मौत हो जाती है।
महिलाओं की स्थिति भी गयी-गुजरी है। उन्हें या तो खेतों में काम करना है या फिर घर का चूल्हा-चौका। वे अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानती। सरकार उनके लिए क्या कुछ कर रही है, कुछ नहीं पता। सौ महिलाओं में एक को भी पोषण के लिहाज़ से दुरुस्त खोज पाना मुश्किल है।
नौजवानों में अलग ढंग की निराशा है। उनमें व्यवस्था और हालातों को लेकर गहरा असंतोष है लेकिन दिशाहीन होने की स्थिति में कोई आवाज़ उठने नहीं पाती।
इन सबके बीच सामुदायिक संस्थानों जिनके उपर लोगों को बेहतर सेवा देने का जिम्मा है, लचर है और वहां के अधिकांश लोग मनमाने तरीक़े से काम करते हैं। चाहे वो स्कूलों में दोपहर के भोजन का मामला हो या फिर राशन कार्ड पर मिलने वाला सामान। सब जगह अपने ढंग की मनमानी है।
कुल मिलाकर सरकार के बड़े-बड़े वायदों को झुठलाता हुआ एक ऐसा गांव जहां लोगों के बीच सूचना का घोर अभाव है। उन्हें पता ही नहीं कि सरकार या प्रशासन की ओर से उन्हें कौन-सी सुविधाएं दी जा रही है।
इस महौल में विकल्प की टीम पहुंचती है लोगों के बीच काम करने और यह बताने के लिए कि कैसे सूचना को जानने के माध्यम के तौर पर विकसित किए जाएं।
2 टिप्पणियां:
शानदार रहा आपका शिविर, काश मैं भी वहां होता
why I was not there? Anway, How it went good, clearly appears in the discription, written by Vineet. Congrats!! all the sathi of safar.Wish u all d best n keep going on!
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