रविवार, 24 फ़रवरी 2008
बाबा फूले टोला में सरस्वती पूजा
'विकल्प' शिविर के बाद तरियानी छपरा में संस्था के काम में बेहिसाब तेज़ी आयी है. अब लोगों के लिए सफ़र अजूबा नहीं रह गया है. ख़ासकर उन टोलों में जहां पिछले दिसंबर में विकल्प के शिविर्रार्थियों ने समय बिताया था, काम की रफ़्तार और दिशा औरों से भिन्न है.
सफ़र, तरियानी छपरा के साथी हर हफ़्ते बताते हैं कि कैसे बाबा फूले टोला में शिक्षाघरों की गतिविधियां ज़्यादा तेज़ हो रही हैं, कैसे समुदाय के लोग स्वयं आकर सीखने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं. किताबघर सही मायने में अब फंक्शनल हो रहा है. पढ़ने-लिखने वाले बच्चे अपने अनपढ बुजुर्गों को गोल दायरे में बिठाकर किताबों से कहानियां सुनाते हैं. 14-15 साल की लड़कियां जो तब बहुत लजा-शर्मा रही थीं, अब हिचक त्याग कर नरेश भाई के शिक्षाघर में आ रही हैं. नरेश भाई स्कूल में अध्यापकी करने के बाद शिक्षाघर में अपना योगदान दे रहे हैं. दिलीप और शंकर भाई अपनी तमाम व्यस्ताओं के बाद भी नियमित रूप से समय निकाल रहे हैं शिक्षाघर के लिए. एक ही टोले में तीन अलग-अलग स्थानों पर शिक्षाघर चल रहा है.
उधर धानुकटोली में विकास भाई और उनके साथी शिक्षाघर का संचालन कर रहे हैं. उनके टोले के बड़े-बुजुर्गों का पूरा साथ मिल रहा है उन्हें. पिछली मतर्बा फ़ोन पर विकास भाई और अभय भाई ने बताया था कि उन लोगों ने सफ़रनामा अख़बार का दूसरा अंक 26 जनवरी के मौक़े पर निकाला था जिसमें छोटे-छोटे बच्चों ने रिपोर्टर की भूमिका निभायी थी. कह सकते हैं जागरूकता अभियान का पहला दौर अब चालू हुआ है.
आज ही विकास ने बताया कि उनका मैट्रिक का इंतहान 25 मार्च से शुरू हो रहा है. इसलिए इन दिनों उन्होंने शिक्षाघर का काम स्थगित कर दिया है. हां, सुबह साढे चार बजे वे लोग हाई स्कूल के मैदान में फुटबॉल खेलने ज़रूर जाते हैं. गांव के कई और नौजवान भी फुटबॉल खेलने पहुंच जाते हैं सुबह-सुबह. खेल के मैदान में ही सफ़र की चर्चा होती है और इंतहान के बाद क्या-क्या किया जाएगा, योजनाएं बन रही हैं.
बड़ा उत्साह बढता है ये सब सुनकर. लगता है कि अगर शुरुआत की जाए तो देर भले ही हो, पर लोग जुड़ते ज़रूर हैं. लोगों में बदलाव की इच्छा है और वे इसके लिए काम करना चाहते हैं. चार-पांच दिन पहले रानी बहन ने बताया कि पहली बार बाबा फूले टोला के लोगों ने मिलकर सरस्वती पूजा का आयोजन किया. यह समाचार सुखद है, क्योंकि मौजूदा ग्रामीण व्यवस्था में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. विकल्प के दौरान स्थानीय लोगों के साथ बातचीत का बड़ा फ़ायदा हुआ है. शिविरार्थियों ने कुछ भी तो नहीं किया सिवाय स्थानीय मसलों पर लोगों के साथ बातचीत के अलावा. बातचीत में बस यही जानने की कोशिश की गयी कि आखिर क्यों उन्होंने अपनी स्थिति को प्राकृतिक मान लिया है. मान लिया है कि उनका जीवन पीसने के लिए ही है, उनके जीवन में सदैव 'बड़े' लोगों का सेवा ही क्यों लिखा है. शायद यही वो सवाल थे जिसने लोगों की चेतना को एक हद तक जागृत किया. रानी ने बड़े खुश होकर बताया, 'भाइजी, ओई दिन बड़ा फोन मिलइली, बाकिर न मिललक फोन. एंह, बड़ा निम्न लगइत रहई. समुच्चा टोला के लोग दू-दू रुपइया लगाके पूजा कएलक. जय-जय हो गेल.' निश्चित रूप से ये उनकी जागृति का असर है. अब अपनी बदहाली या खुशहाली को समझने के लिए किसी शिविरार्थी की मदद नहीं होगी. हां, इस विश्वास को पुख्ता करने के लिए अभी और प्रयास किए जाने हैं. सफ़र के लिए ये एक बड़ी चुनौती है.
सफ़र, तरियानी छपरा के साथी हर हफ़्ते बताते हैं कि कैसे बाबा फूले टोला में शिक्षाघरों की गतिविधियां ज़्यादा तेज़ हो रही हैं, कैसे समुदाय के लोग स्वयं आकर सीखने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं. किताबघर सही मायने में अब फंक्शनल हो रहा है. पढ़ने-लिखने वाले बच्चे अपने अनपढ बुजुर्गों को गोल दायरे में बिठाकर किताबों से कहानियां सुनाते हैं. 14-15 साल की लड़कियां जो तब बहुत लजा-शर्मा रही थीं, अब हिचक त्याग कर नरेश भाई के शिक्षाघर में आ रही हैं. नरेश भाई स्कूल में अध्यापकी करने के बाद शिक्षाघर में अपना योगदान दे रहे हैं. दिलीप और शंकर भाई अपनी तमाम व्यस्ताओं के बाद भी नियमित रूप से समय निकाल रहे हैं शिक्षाघर के लिए. एक ही टोले में तीन अलग-अलग स्थानों पर शिक्षाघर चल रहा है.
उधर धानुकटोली में विकास भाई और उनके साथी शिक्षाघर का संचालन कर रहे हैं. उनके टोले के बड़े-बुजुर्गों का पूरा साथ मिल रहा है उन्हें. पिछली मतर्बा फ़ोन पर विकास भाई और अभय भाई ने बताया था कि उन लोगों ने सफ़रनामा अख़बार का दूसरा अंक 26 जनवरी के मौक़े पर निकाला था जिसमें छोटे-छोटे बच्चों ने रिपोर्टर की भूमिका निभायी थी. कह सकते हैं जागरूकता अभियान का पहला दौर अब चालू हुआ है.
आज ही विकास ने बताया कि उनका मैट्रिक का इंतहान 25 मार्च से शुरू हो रहा है. इसलिए इन दिनों उन्होंने शिक्षाघर का काम स्थगित कर दिया है. हां, सुबह साढे चार बजे वे लोग हाई स्कूल के मैदान में फुटबॉल खेलने ज़रूर जाते हैं. गांव के कई और नौजवान भी फुटबॉल खेलने पहुंच जाते हैं सुबह-सुबह. खेल के मैदान में ही सफ़र की चर्चा होती है और इंतहान के बाद क्या-क्या किया जाएगा, योजनाएं बन रही हैं.
बड़ा उत्साह बढता है ये सब सुनकर. लगता है कि अगर शुरुआत की जाए तो देर भले ही हो, पर लोग जुड़ते ज़रूर हैं. लोगों में बदलाव की इच्छा है और वे इसके लिए काम करना चाहते हैं. चार-पांच दिन पहले रानी बहन ने बताया कि पहली बार बाबा फूले टोला के लोगों ने मिलकर सरस्वती पूजा का आयोजन किया. यह समाचार सुखद है, क्योंकि मौजूदा ग्रामीण व्यवस्था में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. विकल्प के दौरान स्थानीय लोगों के साथ बातचीत का बड़ा फ़ायदा हुआ है. शिविरार्थियों ने कुछ भी तो नहीं किया सिवाय स्थानीय मसलों पर लोगों के साथ बातचीत के अलावा. बातचीत में बस यही जानने की कोशिश की गयी कि आखिर क्यों उन्होंने अपनी स्थिति को प्राकृतिक मान लिया है. मान लिया है कि उनका जीवन पीसने के लिए ही है, उनके जीवन में सदैव 'बड़े' लोगों का सेवा ही क्यों लिखा है. शायद यही वो सवाल थे जिसने लोगों की चेतना को एक हद तक जागृत किया. रानी ने बड़े खुश होकर बताया, 'भाइजी, ओई दिन बड़ा फोन मिलइली, बाकिर न मिललक फोन. एंह, बड़ा निम्न लगइत रहई. समुच्चा टोला के लोग दू-दू रुपइया लगाके पूजा कएलक. जय-जय हो गेल.' निश्चित रूप से ये उनकी जागृति का असर है. अब अपनी बदहाली या खुशहाली को समझने के लिए किसी शिविरार्थी की मदद नहीं होगी. हां, इस विश्वास को पुख्ता करने के लिए अभी और प्रयास किए जाने हैं. सफ़र के लिए ये एक बड़ी चुनौती है.
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