मंगलवार, 6 मई 2008

छूआछूत की परतें उघाड़ती फिल्म: इंडिया अनटच्ड

रेश गोस्वामी दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं और भारतीय समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) दिल्ली से संबद्घ पीएचडी फ़ेलो भी. कांवड़ संस्कृति पर बारीक निगाह थामे नरेशजी धर्म के कारोबार को समझना चाहते हैं . अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन भी करते हैं. ग़ज़ल उनका शौक है. चंद्रा निगम की पहल पर सफ़र द्वारा दिल्ली में 'इंडिया अनटच्ड' के प्रदर्शन भियान के दौरान नरेशजी ख़ास तौर फिल्म देखने दिल्ली युनिवर्सिटी के लॉ फैकल्टी गए. अगले ही दिन उन्होंने सामयिक वार्ता के लिए इसकी समीक्षा भी लिखी. तत्काल ही उन्होंने समीक्षा की एक प्रति सफ़र को उपलब्ध करा दी थी और कहा था ' जल्दबाज़ी होती तो कुछ और बातें लिखी जा सकती थीं जो बेहद ज़रूरी हैं'.




स्टालिन के. की डॉक्युमेंटरी फ़िल्म 'इंडिया अनटच्ड' भारतीय समाज में जाति की संरचना और उसकी उत्तर - जीविता को बहुत सुलझे हुए ढंग से सामने लाती है. देश के आठ राज्यों - पंजाब, केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, आँध्रप्रदेश , तमिलनाडु, गुजरात आदि तथा हिंदू, मुसलमान, सिक्ख और इसाई धार्मिक समाजों में जाति की जकडन, तज्जन्य सामाजिक वंचना अपमान के नैरेटिव बयान करती यह फ़िल्म भारत के शहरी मध्य वर्ग में व्याप्त एक गलतफहमी को आईना दिखाती है. नागरिक संस्थाओं की सुरक्षित और पी तुली दुनिया में रहने वाले लोग अक्सर ख़ुद को यह बात समझा कर मुतमईन से हो जाते हैं कि जाति अब कोई मुद्दा नही रह गई है. पर यह फ़िल्म दर्शक की आँख में ऊँगली डालकर बताती है कि देश में भले ही संविधान का शासन चलता हो पर समाज में आज भी जाति का ही राज कायम है .निर्देशक स्टालिन ने फ़िल्म में विवरणों को कुछ इस तरह संयोजित किया है कि थोडी देर बाद दर्शक भी जाति की बहस में शामिल हो जाता है .
'इंडिया अनटच्ड' जाति व्यवस्था के दो धुर्वो के बीच चलती है. इसके एक ध्रुव पर वे धार्मिक गुरु और कथित विद्वान आसन जमाएं बैठे हैं जो वर्णव्यवस्था /जाति व्यवस्था को स्वर्गिक और वैज्ञानिक सिद्ध करने के आवेग में फूहड़पन की स्वीकृत हदें भी पार कर जाते है तो उसके दूसरे ध्रुव पर निम्न जातियों के वे गरीब और सीधे सादे लोग है जिनसे मनुष्य होने की न्यूनतम गरिमा भी छीन ली गई है. जाति को श्रम विभाजन का अन्यतम रूप ानने वाले वाराणसी के एक संड-मुसंड विद्वान् तो जाति व्यवस्था की महानता को लेकर इतने आश्वस्त हैं कि बुनियादी शालीनता तक भूल जाते हैं. महोदय दलितों की बौद्धिक क्षमताओं पर तंज करते हुए पूछते हैं कि 'बताओ आज तक किसी दलित ने बोर्ड की परीक्षाओं में टॉप किया है'? मान्यवर की ज्ञान वर्षा यहीं नही रुकती . वह सवाल पूछ रहे निर्देशक को ज्ञान की मणि थमाते हुए कहते हैं : जो चपरासी बनने के ही लायक है वह और कुछ कैसे बन सकता है?
इन त्रिपुंड धारी विद्वान को जब बताया जाता है कि जाति व्यवस्था संविधान सम्मत नही है तो बड़े बेलौस ढंग से कह उठते हैं कि मैं तो इसे अपना संविधान मानता ही नही . इसी तरह कांची के शंकराचार्य जाति में निहित अमानवीयता के तत्व को गोल मोल करते हुए उच्च स्तरीय दार्शनिक लफ्फाजी में छिपकर कहते हैं कि जाति तो शरीर की होती है आत्मा की नही. ऐसे ही एक और वृद्ध विद्वान दर्शको का ज्ञानवर्द्धन करते हुए कहते हैं कि दुनिया के हर समाज में जाति की व्यवस्था किसी किसी रूप में पाई ही जाती है. यह देखकर थर्राहट होने लगती है कि ये धार्मिक विद्वान भारतीय समाज की इस मनुष्य विरोधी प्रवृत्ति को कितनी आसानी से प्राकृतिक और ईश्वरीय व्यवस्था कह डालते हैं. ऐसे लोगो को देखकर दर्शको के ज़हन में यह बात जरुर उठती है कि इस आपराधि सोच को फलने फूलने के संसाधन कहाँ से मिलते हैं .
जातिगत विषमताओं को वैध साबित करने वाली इन परम निंदनीय विभूतियों के आर्ष-वचनों के समानांतर निर्देशक स्टालिन दलित जातियों की उन जीवन-परिस्थितियों को भी आयत्त करते हैं जिनमें मनुष्य की गरिमा की बात तो दूर उसके आत्म तक का लोप हो जाता है. दर्शको को यह समझने के लिए बहुत माथा -पच्ची नहीं करनी पड़ती कि दरअसल उत्पीडितों के जीवन की भयावह परिस्थितियों के लिए यह शास्त्रवादी सोच ही जिम्मेदार है जो अपने लिए तो सभ्यता के सारे सुख सुरक्षित कर लेती है पर दलितों को मनुष्य बने रहने की भी मोहलत नही देती.
इस फ़िल्म की ख़ास बात यह है कि निर्देशक जातिगत उत्पीड़न भेदभाव को अन्तर- धार्मिक स्तर पर देखने की कोशिश करता है. फ़िल्म देखते हुए दर्शक की समझदारी दुरुस्त होती चलती है . इस क्रम में उसे पता चलता है कि दरअसल दलित मनुष्य की एक ऐसी श्रेणी है जो सिर्फ़ हिंदू या इस्लाम तक सीमित नही है. सच यह है कि भारत में हर धार्मिक समुदाय ने अपने भीतर लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या को दलित बना रखा है . यही कारण है कि धर्मग्रन्थों में सब मनुष्यों को बराबर कहा जाता है पर कब्रिस्तान में दफनाते वक़्त मुसलमान पमडिया,मंसूरी और सैय्यद में बँट जाता है और गुरुद्वारे में शरबत बाँटते वक़्त मजहबी या रविदासी सिखों को अलग दरवाजे पर खड़ा कर दिया जाता है .
'इंडिया अनटच्ड' एक्टिविस्ट तेवर की फ़िल्म है . यह कला की किसी बारीकबीनी में नहीं फंसती . वह बहुत संयमित स्वर और आग्रही अंदाज़ में जाति की विकृतियों को बेपर्द करती चलती है. यह चलते फैशन को भुनाने की गरज से बनी फ़िल्म नही है. अपने विवरणों, घटनाओं , पीडितों और उत्पीड्कों के साक्षात्कार तथा निर्देशक के मूल्य -बोध से मिलकर अंतत यह फ़िल्म लोकतांत्रिक समतापूर्ण समाज की एक दलील बन जाती है. फ़िल्म दर्शको पर जबरन कोई संदेश नहीं थोपती . वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के अंधेरे हिस्सों को दिखाती है . वंचना , उत्पीडन और भेदभाव के दृश्य रचती यह फ़िल्म दर्शकों को संवेदनशील तो बनाती ही है साथ ही उसे सचेत भी करती है कि लोकतंत्र हमारे यहाँ अभी महज़ चुनावी आयोजन तक ही सीमित है. इस अगली परियोजना समाज के उस नेतृत्व को घेरनी की होनी चाहिए जो वर्ण और जाति की व्यवस्था का खुलेआम समर्थन करता है .
'इंडिया अनटच्ड' को देखा और दिखाया जाना चाहिए . डॉक्युमेंटरी फिल्मों के साथ एक बड़ा संकट यह है कि उन्हें देखने दिखाने की कोई पुख्ता व्यवस्था नही है. अक्सर उन्हें ऐसे आलमी और अभिजात केन्द्रों पर दिखाया जाता है जहां मुद्दे पर अकादमिक रुचियाँ ज्यादा हावी हो जाती हैं . ऐसी फिल्में जनता के बीच व्यवस्थित ढंग से ले जानी चाहिए . सफ़र नामकएक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन ने इस फिल्म को दिल्ली की अदालतों और शिक्षण संस्थानों में दिखाने का जतन किया है. ऐसी फिल्में जनता के बीच जानी चाहिए.

साभार: सामयिक वार्ता, संपादन- योगेन्द्र यादव, मार्च 2008, नयी दिल्ली

नोट: फिल्म की कॉपी के लिए दिल्ली में दलित फाउंडेशन और सफ़र तथा अहमदाबाद में दृष्टि से संपर्क कर सकते हैं.