रविवार, 27 जनवरी 2008

बाबा फूले टोला: नया प्रतीक नयी पहचान

22 से 31 दिसंबर 2007 के बीच तरियानी छपरा में संपन्न हुए सामुदायिक मीडिया शिविर 'विकल्प' पर अपने तजुर्बे की दूसरी खेप बांट रहे हैं विनीतजी
..... इन हालातों के बीच सफर और मीडिया वर्कशॉप के लिए बनी टीम विकल्प तरियानी छपरा के लोगों के बीच पहुंचती है। साथ में देश के अलग-अलग हिस्सों से आए हमारे साथी। गांव के कई लोग हमारे साथ ऐसे थे जो अपने ही गांव के कुछ इलाकों में पहली बार हमारे साथ जा रहे थे। जो साथी बाहर से आए थे उनका साफ कहना था कि हमारे यहां भी बेकारी है, गरीबी है, नागपुर में भी पिछड़पन है लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं कि लगे ही नहीं कि देश अभी तक आजाद नहीं हुआ है। मेरे लिए तो जातिगत आधार पर गांव के टोलों का विभाजन, नामकरण और अंदर की व्यवस्था का देखना पहली बार हो रहा था। आपको साफ झलक जाएगा कि फलां टोली अगड़ी जातियों का है और फलां पिछड़ी जातियों का। अगड़ी जातियों की जो टोली थी वो गांव के ठीक बीचोबीच में और जैसे-जैसे जाति का विभाजन नीचे के स्तर तक पहुंचता उनकी टोलियां गांव के केन्द्र से उतनी ही नीचे खिसकती चली जाती है. इसलिए कभी चमड़े का काम करने वाले लोगों (अब तो दिल्ली, लुधियाना, कलतकत्ता, डिमापुर कमाते हैं) की टोली एकदम नीचे, गांव से बहिष्कृत और पूरे गांव की गंदगी और नाली के पानी का जमावड़ा। ऐसा नहीं है कि उनके टोले में जो गंदगी है उसके लिए सिर्फ वे ही जिम्मेवार हैं बल्कि ढलान से सारा पानी उनके टोले में आकर जमा हो जाता है। एक और बात जिस पर हमारा ध्यान गया वो यह कि टोले का नामकरण भी उनके जातिगत पहचान और उनकी हैसियत से जुड़ा है। अगड़ी जातियों के टोले का नाम सीधे-सीधे उनकी जाति को संबोधित करके नहीं है। राजपूतों के लिए अठघरवा, बिचला पट्टी, अलोरा, बाबा टोला जैसे नाम हैं जबकि पिड़ी जातियों के नाम सीधे-सीधे उनकी जाति पर आधारित है जिसका नाम वहां के स्थानीय लोग बड़े ही हिकारत से लेते हैं, जैसे 'चमरटोली', 'मुसहरी', '' इत्यादि। उनकी तरह उके नाम और उनका टोला भी अछूत करार दे दिया गया है और गांव के तथाकथित सभ्य लोग उधर कभी नहीं जाते। ऐसे रेक टोलों से दुनिया भर की किंवदंतियां जोड़ दी गयी हैं और सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि सारी बुराईयों के जड़ यही सारे टोले हैं।

सफर की टीम ने सबसे पहले इनके बीच की हीनता- बोध को ध्वस्त करने का काम किया। ठीक है, तुम्हारा जन्म अगड़ी जाति में नहीं हुआ इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि तुम्हारे आदमी होने की गारंटी खत्म हो गई और तुम्हें इंसान की तरह जीने का हक नहीं है। अगर जाति से लोगों को महान होना होता तब तो तुम्हारे गांव में उंची जाति के लोगों में दुनिया की सारी समझदारी आ जाती, जबकि ऐसा नहीं है। तुम्हें अपनी स्थिति में सुधार जाति के पचड़ों में पड़कर नहीं बल्कि अपने अधिकारों को जानने, सरकार की ओर से तुम्हारे लिए जो सुविधाएं मुहैया करायी गयी हैं उसे समझने में होगी। अपने साथी चंद्रा ने जो कि पेशे से एडवोकेट है, लोगों के बीच अपने अधिकारों को लेकर बातचीत की, उन्हें बताया कि कैसे अपने अधिकारों के बारे में जानने से उनकी स्थिति में सुधार होगा और अगड़ी जातियों का तुम्हारे उपर जो शोषण है वो खत्म होगा। इसके लिए सबसे जरुरी है सालों से एहसास कराए जाने वाली उस मानसिकता से उपर उठने की कि तुम नीची जाति के हो। तुम गांव के निवासी होने के साथ ही देश के नागरिक हो और जिसका की अपना संविधान है जो इस बात की गारंटी देता है कि तुम किसी भी मामले में कम नहीं। विकल्प की टीम ने गांव के उस टोले का नाम बदल दिया. बाबा फूले टोला नाम दिया उसका. न केवल नये प्रतीक को जन्म दिया बल्कि एक खास तरह की पहचान गढने की कोशिश की. आज उस टोले के किसी भी व्यक्ति से पूछा जाए वो अपने टोले का नाम बाबा फूले टोला ही बताता है. बच्चा, बूढ़ा, औरत मर्द. गजब का परिवर्तन.

साथ की रेहाना बहन जो कि गुजरात से आयी थीं और जॉय भाई जो दिल्ली से आए थे, ने टोले की महिलाओं से लगातार सात दिनों तक बातचीत की, उन्हें बताया कि नहीं फढ़ने-लिखने से कितना नुकसान होता है, कैसे बच्चे गंदगी में भटकते फिरते हैं और महिलाएं खुद पुरुषों के आगे किस तरह लाचार हैं। आप पढ़-लिखकर आगे के लिए सोच सकती हैं। शुरु-शुरु में तो महिलाएं घर से निकलती तक नहीं थीं लेकिन बाद में वे हमसे खुलती चली गयीं। और उसके बाद जो आत्मीय संबंध बने सो आने तक एक दारुण विदाई की शक्ल मे बदल गए।

टोले के अधिकांश बच्चे स्कूल नहीं जाते. नहीं जाने की अलग-अलग वजहें थी जिसमें स्कूल के मास्टरों का उदासीन रवैया और भेदभाव भी शामिल था। सात-आठ दिनों में हम उन्हें कोई मुकम्मल पढ़ाई नहीं दे सकते थे। लेकिन इतना हमने करने की जरुर कोशिश की कि पढ़ाई के प्रति उनमें रुचि पैदा हो. क्योंकि हम लोगों ने पाया कि बच्चे दिमागी स्तर पर कमजोर नहीं हैं, अधिकांश बच्चे हमारी बातों को बड़ी जल्द ही समझ लेते हैं लेकिन यही बात वे स्कूल में या पढ़ाई के स्तर पर नहीं कर पाते। सो सबसे ज्यादा जरुरी है कि उन्हें अलग-अलग तरीकों से पढ़ाई के प्रति ललक पैदा की जाए। अक्षर ज्ञान भी लोगों को कम ही था, अधिकांश लोग पढ़ नहीं पाते। ऐसे में जरुरी था कि उनके बीच गीत, चित्र और छोटे-छोटे खेलों से बात शुरु की जाए ...

शुरुआत की हमने गीतों के माध्यम से, खेलों से। क्योंकि सबसे ज्यादा जरुरी था कि बच्चे पहले हमसे बातचीत करने की स्थिति में आएं। उनके साथ मिलकर रोज कुछ न कुछ रोचक गतिविधि चलाई जाती थी. ध्‍यान रखा जाता था कि गतिविधि ऐसी हो जिसमें ज्यादा से ज्यादा बच्चे शामिल हो सकें, उन्हे करने के लिए कुछ सोचना नहीं पड़े। मसलन लोक गीत, चोर-सिपाही, बूझो कौन जैसे खेल। एक दिन की बात तो कभी भूलने की नहीं है-

हमलोगों ने उन्हीं बच्चों में से एक को गांव का मुखिया बना दिया, बाकी बच्चों को उसके सामने बिठाया और कहा कि आप लोगों को इस गांव में जो भी परेशानी महसूस होती है, मुखियाजी को बताओ और साथ में यह भी बताओ कि कैसे सुधार किया जा सकता है. आपको जानकर हैरानी होगी कि सात साल के बच्चे से लेकर बारह साल के इन बच्चों के पास अपनी अलग-अलग समस्याएं थीं और अपने-अपने विज़न भी। कोई भी ऐसा बच्चा नहीं मिला जो कि गांव को लेकर कुछ भी न बोल पाया हो। और मजा तो तब आया जब मुखिया बने बच्चे ने उन सारे बच्चों से वायदा किया कि ये तो खेल-खेल में हो गया लेकिन हमलोग सचमुच में जाकर मुखियाजी क सामने अपनी बात रखेंगे।

दूसरे नजारे पर गौर कीजिए। हमने कहा कि आज तुमलोगों में से हर किसी को कुछ न कुछ गाकर सुनाना है, कुछ एक्टिंग करनी है। पहले तो उनमें थोड़ा संकोच रहा लेकिन एक बार जब शुरु हुए तो गाते चले गए। कुछ बच्चों के गाने को सुनकर मुझे तो अफसोस होने लगा- हाय रे ए टीवी चैनलवालों, टैलेंट हंट में ये बच्चे इन्हें कभी हाथ नहीं लगते! जबरदस्त अभाव, लाचारी और गंदगी के बीच इन बच्चों के भीतर छिपी प्रतिभा को देखकर कोई भी मोहित हुए बिना नहीं रह सकता! असल में ये गुदड़ी के लाल हैं!



....क्रमशः

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

सामुदायिक मीडिया शिविर विकल्प: एक हैरतंगेज़ तजुर्बा


22 से 31 दिसंबर 2007 के बीच तरियानी छपरा में संपन्न हुए सामुदायिक मीडिया शिविर 'विकल्प' के दौरान जो कुछ भी देखने-समझने को मिला, विनीतजी ने उस पर लिखना शुरू किया है. इसे रपट भी समझा जा सकता है.
पेश है उनके तजुर्बे की पहली किस्त:


देश की आजादी के साठ साल बाद भी कई ऐसे गांव हैं जहां पानी, बिजली, सड़क तो क्या लोगों को रहने के लिए झोपड़ी तक नसीब नहीं है और न ही खाने के लिए अनाज। विकास के बड़े-बड़े नमूनों, महानगरों की चमचमाते शॉपिंग मॉलों और चौड़ी काली सड़को से गुजरते हुए जब आप इन गांवों में पहुंचेंगे तो आपके मन में एक ही सवाल उठेगा कि क्या ये भारत का ही हिस्सा है और दूसरा बड़ा सवाल कि क्या यहां लोग रहते हैं. लेकिन सच तो यही है कि ये सारे बदनसीब इलाके भारत का ही हिस्सा और यहां लोग रहते भी हैं। लेकिन कैसे ...

यही सब कुछ जानने-समझने के लिए सफ़र ने दिसंबर 2007 के अंत में दस दिन का सामुदायिक मीडिया शिविर विकल्प का आयोजान किया. 22-31 दिसंबर के बीच शिवहर जिले के तरियानी छपरा गांव में संपन्न हुए इस शिविर का मुख्य उद्देश्य था मीडिया के विभिन्न माध्यमों का प्रयोग करते हुए वहां की स्थितयों को समझना और उसे देश के सामने लाना साथ ही इलाक़ाई स्तर पर मीडिया या जनसंचार के वैसे माध्‍यमों को खड़ा करना जिसमें कोई लागत न आए और अगर आए भी तो कम से कम. इस प्रकार सामाजिक जागरुकता का काम शुरू हो जहां लोग आसानी से अपनी बात रख सकें। सूचना के प्रति लोगों की समझ विकसित हो और वे अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हों

अपने इस सोच को अंजाम देने के लिए सफ़र ने बिहार के सबसे अधिक पिछड़ा कहे जाने वाले तरियानी छपरा को चुना। यह इलाक़ा बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले से क़रीब 35 किलोमीटर दूर है. पता चला कि यह बाढ़ प्रभावित इलाक़ा है और हरेक साल बाढ़ से बेहिसाब तबाही होती रही है। सफ़र ने पूरी वस्तुस्थिति को समझने और अलग-अलग माध्यमों से हालात को सामने लाने के लिए देश के कई स्वयंसेवी संस्थाओं, समाजकर्मियों और समुदाय की बेहतरगी के लिए काम करने वाले लोगों को सूचित किया, उन्हें आमंत्रित किया कि वे इस पिछड़े इलाके में मीडिया को माध्यम बनाते हुए लोगों के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य औ अधिकारों के प्रति समझदारी पैदा करने में उसकी मदद करें। नतीजा वाकई चौंकाने वाला रहा। देस के क़रीब चौदह-पन्‍द्रह राज्यों के लोगों ने सम्पर्क किया और अंततः दिल्ली, गुजरात, बिहार, उत्तरांचल, महाराष्ट्र, झारखंड और बंगाल से लोग दस दिन के इस सामुदायिक मीडिया शिविर में भाग लेने पहुंचे। यह पहल अब सफ़र के टीम की पहल नहीं रह गयी थी बल्कि देश के अलग-अलग हिस्सों से आए लोगों की सामुदायिक पहल बन गई. 22 दिसम्बर से 30 दिसम्बर तक विकल्प में भाग लेने आए दल के सदस्यों ने तरियानी छपरा, बिहार में वैकल्पिक मीडिया के ज़रिए सामाजिक जागरुकता का काम किया।

गां की स्थिति और जीने की शैली शहर या कस्बों की जिंदगी से बिल्कुल अलग होती है। विकल्प की टीम में ज्यादातर लोग शहरों से आए थे और तिस पर अहिन्दी प्रदेश के लोगों को भाषा को लेकर कुछ समस्याओं का आना स्वाभाविक था। इसका हल निकाला वहीं के कुछ स्थानीय बच्चों और सफ़र के कार्यकर्ताओं ने। ये वे बच्चे थे जो स्थानीय भाषाओं के साथ-साथ हिन्दी और थोड़ी-बहुत अंग्रेज़ी भी जानते थे। और एक-एक करके स्थानीय भाषा न समझने वाले लोगों के पीछे लग गए। औऱ इस तरह से दस दिन त बाहर से आए लोगों को वहां की भाषा सीखाते और समझाते रहे। एक तरह से शिविर का यह नियमित सत्र रहा। औ जहां हम काम करें सबसे पहले वहां की भाषा के लिहाज़ से काम करें वाला फ़र्मूला फ़ॉलो किया जाने लगा और इसका पूरा श्रेय वहां के बच्चों को जाता है।

धीरे-धीरे भाषा सीखने के साथ वहां के लोगों के बीच काम करने का सिलसिला शुरू हुआ और विकल्प की टीम लोगों के बीच पहुंती। पहले दिन तो सारे लोग एक साथ पूरे गांव में घूमे, लोगों से बातचीत की और वापस हाई स्कूल स्थित अपने शिविर में आकर एक खांका तैयार किया कि कैसे क्या काम करना है. दूसरे दिन से पांच-पांच की टीम बनाकर अलग-अलग टोले में जाने लगे। वहां मोहल्ले को टोला कहा जाता है. इन टोलों के बंटवारे का आधार जाति है। इन टोलों की स्थिति जाति के हिसाब से तय होती है। और शहर में आकर हमारी ये धारणा टूटने लगी थी कि अब देश में जातीय संरचना टूट रही है, यहां ने पर एक बार फिर अफसोस होता है कि कैसे अभी भी लोग जातीय बंधनों में जकड़े हुए हैं।

दलित और पिछड़े समुदायों के टोलों में कई ऐसे बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जाते, कईयों ने बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी और छोटे-मोटे काम में लग गए। बाल मज़दूरी है। बच्चे जलावन की लकडियों के लिए दिन-दिन भर भटकते-फिरते हैं। ग्यारह-बारह साल के बच्चे गुजरात और गुडगां मज़दूरी करने जाने को तैयार हैं, मां-बाप उन्हें पढाना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें इसका कोई सीधा लाभ समझ मे नहीं आता। कुपोषण की वजह से बच्चों में बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। एक तरह से कह लें कि उनसे उनका बचपन छीना जा रहा है।

लड़कियों की हालत बेहद चिंताजनक है। कई टोलों की लड़कियां लिखना-पढ़ना नहीं जानती, कभी स्कूल तक नहीं गई। मां-बाप उन्हें घर के कामों में लगाए रखते हैं। कुछ अभिभावको का मानना है कि सुरक्षा के लिहाज़ से ये इलाक़ा ठीक नहीं है। इनके साथ कुछ हादसा न हो जाए इसलिए इनको बाह पढ़ने-लिखने नहीं भेजते। कईयों की शादी तो दस-ग्यारह साल में ही कर दी जाती है। यानि बाल-विवाह अब जारी है। कम समय में शादी होने और बच्चा पैदा करने के करण कई बार उनकी असमय मौत हो जाती है।

महिलाओं की स्थिति भी गयी-गुजरी है। उन्हें या तो खेतों में काम करना है या फिर घर का चूल्हा-चौका। वे अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानती। सरकार उनके लिए क्या कुछ कर रही है, कुछ नहीं पता। सौ महिलाओं में एक को भी पोषण के लिहाज़ से दुरुस्त खोज पाना मुश्किल है।

पुरुषों का मुख्य काम खेती है। लेकिन कईयों की ज़मीन बाढ़ के कारण या फिर तंगी हालत के कारण नहीं रही, उन्हें मज़दूरी का काम करना पड़ता है। उनका टके-सा जबाब होता है जब खाने के पैसे नहीं हैं तो बाल-बच्चों को कहां से पढाएं।

नौजवानों में अलग ढंग की निराशा है। उनमें व्यवस्था और हालातों को लेकर गहरा असंतोष है लेकिन दिशाहीन होने की स्थिति में कोई आवाज़ उठने नहीं पाती।

इन सबके बीच सामुदायिक संस्थानों जिनके उपर लोगों को बेहतर सेवा देने का जिम्मा है, लचर है और वहां के अधिकांश लोग मनमाने तरीक़े से काम करते हैं। चाहे वो स्कूलों में दोपहर के भोजन का मामला हो या फिर राशन कार्ड पर मिलने वाला सामान। सब जगह अपने ढंग की मनमानी है।

कुल मिलाकर सरकार के बड़े-बड़े वायदों को झुठलाता हुआ एक ऐसा गांव जहां लोगों के बीच सूचना का घोर अभाव है। उन्हें पता ही नहीं कि सरकार या प्रशासन की ओर से उन्हें कौन-सी सुविधाएं दी जा रही है।

इस महौल में विकल्प की टीम पहुंचती है लोगों के बीच काम करने और यह बताने के लिए कि कैसे सूचना को जानने के माध्यम के तौर पर विकसित किए जाएं।