शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

विकल्प: दस दिवसीय शिविर में आपका स्वागत है

सफ़र उत्तर बिहार के शिवहर जिले में एक दस दिवसीय शिविर, विकल्प का आयोजन कर रहा है. 22 से 31 दिसंबर 2001 तक तरियानी छपरा गांव में चलने वाले इस शिविर का मुख्‍य उद्देश्य है सम्प्रेषण के विविध उपकरणों और तौर-तरिक़ों से दोस्ती गांठना और समुदाय के हित में उनके प्रयोग की बारिकियों को सीखना. शिविर इस मायने में महत्तवपूर्ण है कि सहभागियों को आपस में अपने ज्ञान और हूनर के आदान-प्रदान का मौक़ा मिलेगा और साथ में ग्रामीण जीवन का तजुर्बा भी. उम्मीद है यह शिविर मनचाही दिशा में आगे बढ़ने में सहभागियों की मदद करेगा.

कोशिश की गयी है कि विकल्प सीखने-सिखाने का एक दिलचस्प माध्‍यम बने. इन दिनों के दौरान सहभागी नयी मीडिया तकनीकों के साथ तरह-तरह के प्रयोग करेंगे, ग्रामीणों के साथ बातचीत करेंगे, तस्वीरें उतारेंगे और विडीयो बनाएंगे, आवाज़ और तस्वीरों के साथ कुछ खेल करेंगे, किताब डिज़ाइन करेंगे, कॉमिक बनाएंगे, कहानी और कविता लिखेंगे ...

कुछ सामुदायिक बैठकें भी होंगी जहां शिविरार्थियों को रहन-सहन, कला, संस्‍कृति इत्यादि से रू-ब-रू होने का अवसर मिलेगा.

विकल्प मे शामिल होने के लिए किसी तरह की औपचारिक योग्यता की ज़रूरत नहीं है, हां, समुदाय और मीडिया में दिलचस्पी तो होनी ही चाहिए. शिविर में शामिल होने का मन बना रहे लोगों से हमारा यह अनुरोध है कि वे तरियानी छपरा आने-जाने का ख़र्च ख़ुद वहन करें साथ ही 500 रुपए का अनुदान भी दें ताकि खान-पान और टिकने-टिकाने के अलावा अन्य ज़रूरी सामग्री का इंतजाम किया जा सके. आप यदि अतिरिक्त अनुदान देना चाहें तो आपका स्वागत है. ये अतिरिक्त योगदान किसी और सहभागी के काम आ सकता है.

सफ़र एक लाभनिरपेक्ष पहल है. कार्यक्रम और गतिविधियों के अनुरूप दोस्तों, शुभचिंतकों और अपने हमसफ़रों का सहयोग हमारा वित्तीय आधार है.

विकल्प में आपका स्वागत है. आप इस न्यौते को खुलकर अपने दोस्तों और परिचितों के साथ साझा कर सकते हैं. शिविर में शामिल होने का मन बना रहे हों तो जल्द से जल्द हमें सू‍चित करें.

तरियानी छपरा मुज़फ़्फ़रपुर रेलवे जंक्शन से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. मुज़फ़्फ़रपुर के लिए देश के लगभग सभी बड़े शहरों से सीधी रेल की व्यवस्था है.

किसी भी तरह की पूछताछ के लिए

safar.delhi@gmil.ocm पर लिखें, या
+91 9811 972 872 अथवा +91 9971 393 818 पर फ़ोन करें

सोमवार, 5 नवंबर 2007

हमारा सामुदायिक घर ताड़ी की गद्दी है ...

रामप्रवेश राम

तरियानी छपरा गांव में कुछ अनुसूचित जाति मोहल्लों में विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत सामुदायिक भवन और चौपाल निर्माण करवाया गया है. हमारे टोले में भी कहने के लिए दो सामुदायिक भवन और चौपाल है. सफ़र के कार्यकर्ताओं ने गांव की सार्वजनिक संपत्ति के बारे में जब से दस्तावेज़ीकरण करना शुरू किया है तब से मेरा ध्यान भी इस पर गया है.

हालांकि ऐसा नहीं है कि पहले मैं इसके बारे में नहीं सोचता था, पर तब मैंने ये नहीं सोचा था कि इस पर भी कुछ लिखा-पढ़ा जा सकता है. लेकिन जब अभय, विजय, विकास और सफ़र के अन्य साथियों ने अपने-अपने ने मोहल्ले और आसपड़ोस के सामुदायिक भवनों पर काम करना शुरू किया तब मैंने भी इस मसले पर विचार करना शुरू किया.

एक सामुदायिक चौपाल हमारे घर के ठीक बग़ल में है. पर कोई भी व्यक्ति देखकर उसे चौपाल नहीं कहेगा. मैं बचपन से इस चौपाल को देख रहा हूं. उपर से खपरैल और नीचे ईंट और सिमेंट की फ़र्श, और ईंट के ही पायों पर खड़ा यह चौपाल दरअसल अब ताड़ी और ताश का अड्डा बनकर रह गया है. दिन ढलते ही यहां ताड़ी पीने वालों का जमघट लग जाता है. ताश खेलने वाले तो ख़ैर, दिन भर लगे ही रहते हैं. वैसे लोग जिन्‍हें काम-धंधे में मन नहीं लगता है, जमे रहते हैं यहां.

टोले का ही एक व्यक्ति ताड़ी का कारोबार करता है. उसने चौपाल को दो तरफ़ से घेर दिया है, जिसमें वह ताड़ी रखता है और उसके मवेशी भी चौपाल के इर्द-गिर्द बंधे रहते हैं. देर रात तक लोग ताड़ी पीकर गाली-गलौज करते हैं और जमकर शोर मचाते हैं. आसपास के लोगों को इसके चलते बहुत परेशानी होती है. कई पियाक तो ऐसे हैं जो घर भी नहीं जाते हैं और रातभर हंगामा मचाते हैं.

कई बार ताड़ी का धंधा करने वाले को समझाने की कोशिश की गयी कि वो ये काम बंद कर दें. समझना तो दूर की बात, वो उल्टे समझाने वालों से झगड़ने लगता है और मारपीट पर उतारू हो जाता है. एक-आध बार मामला थाने में भी पहुंचा, लेकिन कोई ख़ास असर नहीं हुआ. शायद ले-देकर मामला रफ़ा-दफ़ा हो गया क्योंकि पुराना काम जारी ही रहा.

दूसरा सामुदायिक भवन जो थोड़ी दूर हटकर सड़क के किनारे है, उसकी हालत और भी जर्ज है. छप्पड़ भी टूट गया है. अब यह भवन शौचालय से ज़्यादा कुछ नहीं रह गया है. मैंने जब इसके बारे में अपने आसपास के लोगों से बातचीत की तो उनका कहना था कि कौन जाएगा उससे झगड़ा करने और सिर फोड़वाने. हालांकि कुछ महिलाएं ज़रूर इसके खिलाफ़ हैं और वो यहां से ताड़ी की गद्दी हटाने के लिए संघर्ष करने को भी तैयार हैं. पर एक बार फिर यही लगता है कि जबतक लोग एकजुट होकर इसका विरोध नहीं करेंगे सामुदायिक भवन पर ये क़ब्ज़ा बना ही रहेगा और सार्वजनिक सम्पत्ति का ऐसे ही दुरउपयोग होता रहेगा.

इन दोनों ही सामुदायिक भवनों के बारे में मैं और भी जानकारी जुटाने की कोशिश कर रहा हूं.