शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

बाढ़ और अफ़वाह II



बाढ़ और अफ़वाह की अगली किस्त विजय की डायरी से
8 सितंबर 2007

आज रात क़रीब आ बजे हमलोग एक दालान में बैठ कर क्रिकेट देख रहे थे। अचानक किसी की आवाज़ आई कि बाँध टूट गया है, वो भी अपने गाँव का। ह क्रिकेट छोड़कर दालान से बाहर निकले और देखने लगे कि कौन हल्ल कर रहा है। गाँव की तरफ़ से आवाज़ आ रही थी। सब अपने-अपने घर कि तरफ़ लपके। एक ही पल में भगदड़- मच गई। सब अपनी-अपनी जान बचाने के लिए इधर-उध भागने लगे। किसी को देखा कि अपना सामान लेकर वो कहीं ऊँचे स्थान पर जाकर बैठ गया, तो कुछ लोग खाने से लेकर पहनने तक का सामान लेकर किसी तरफ़ भागे जा रहे थे। कहीं से बच्चे की रोने कि आवाज़ आ रही थी तो कहीं से छत वाले मकानों की तरफ़ भागने की अपील। उस समय मैं सोचने लगा कि अब किया क्या जाएकैसे सब लोगों को बचाया जाए

तभी मेरे दिमाग़ में ये ख़याल आया कि आख़िर बाँध किस तरफ़ टूटा है उसका पता लगना ज़्यादा ज़रूरी है। मैं गाँव कि तरफ़ भागा। किसी से रोककर पूछना चाहा लोगों के पास इतना समय नहीं था कि वो मुझसे कुछ बात कर सकते। एक नौजवान अपनी बुढ़ी माँ को बाढ़ में डूबने से बचाने के लिए छत पर ले जा रहा था। किसी को देखा अपनी बच्ची को गोद में लेकर पड़ोसी के छत वाले घर की तरफ़ भाग रहा था। फिर मेरे दिमाग़ में एक ख़याल आया कि जिसका घर बाँध के पास है उससे फ़ोन करके पूछता हूँ कि क्या सही में बाँध टूट गया है। जब मैंने फ़ोन पर पूछा कि क्या सही में बाँध टूट गया है? तो वो बोला, ‘‘नहीं तो, कहाँ बाँध टूटा है! ये झूठी अफ़वाह है।’’ तब जाकर मेरी जान में जान आई और सब लोगों को बताया कि बाँध टूटा नहीं है। ये ग़लत अफ़वाह है। उसके बाद सब अपने-अपने घर में जाकर चैन से बैठे और सारा सामान वापस लाकर घर में रखे। ये तो उस रात कहानी है।

उदयपुर फ़िल्म मेकिंग वर्कशॉप से लौटने के बाद अपने-आप में मैंने कुछ बदला तो ज़रूर महसूस किया है। जब यहाँ आया तो लोग पूछते थे और अब भी पूछते हैं, कहाँ गया था? क्या सीख कर आया है?’’ जब वे मेरे हाथ में कैमरा देखते हैं तो पूछते हैं कि इससे मैं क्या करूँगा। तब बताता हूँ कि फ़िल्म बनाना सीख रहा हूँ। उसी के लिए शूटिंग कर रहा हूँ। जब लोग हमारी फ़िल्में देखते हैं तो पूछते हैं, ‘‘ये बनाकर क्या करोगे?’’ मेरे पास उनके सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं होता है। अपनी तरफ़ से कुछ उलट-सीधा समझा देता हूँ। मेरे कुछ दोस्तों ने इस वीडियो कैमरा का एक और उपयोग ये बताया, ‘‘तुम अपना फ़िल्म भी बना लेना और सरकारी कर्मचारी जो ग़लत तरीक़े से कोई काम करते हैं वो कैमरे की डर से नहीं करेंगे। कल बाढ़ राहत मिलेंगे है। सबको अनाज और पैसे बँटेंगे। तुम बाढ़ राहत पर फ़िल्म बनाना। कुछ शूटिंग वहाँ कर लेना सरकारी कर्मचारी से कुछ पूछकर उसको कैमरे में ले लेना। इससे फ़ायदा ये होगा कि वो कर्मचारी कैमरे के सामने न झूठ बोलेंगे और न ही कुछ चोरी करेंगे।’’

वैसे मैंने बाढ़ की कुछ शूटिंग की है। अगर मेरे कैमरे से गाँववासियों का और गाँव का थोड़ा-सा भी भला हो जाए तो मैं समझता हूँ कि कैमरा और मैं किसी काम आ सके। मैं चाहता हूँ कि इस गाँव की सूरत और सीरत बदलनी चाहिए। गाँव में जो अनपढ़ लोग हैं वो पढ़ें और यहाँ की क़ानून-व्यवस्था को जानें-समझें। सब मिलकर एक साफ़-सुथरा गाँव बनाएँ।

आभार: चन्दन शर्मा

बाढ़ और अफ़वाह


पिछले ढाई-तीन महीनों के दौरान उत्तर बिहार बुरी तरह बाढ़ से प्रभावित रहा. जान-माल की बर्बादी ने पिछले सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए. बाढ़ के दौरान गांव-जवार में बाढ़ के बारे में कैसे और कैसी अफ़वाहें फैलती हैं, और लोग उनको किस तरह लेते हैं - सफ़र, बिहार के कुछ साथी तरियानी छपरा , शिवहर से अपनी डायरी के कुछ पन्नों के माध्यम से हमसे साझा कर रहे हैं. पेश है अभय का पन्ना :

ठीक ग्यारह बज रहे थे। मैं बाज़ार एक दुकानदार के पास बैठा था। तभी हल्ला हुआ, ‘‘बाँध एकदम से टूटने के क़गार पर है।’’ फिर क्या था! सभी दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें बंद करने लगे। मैं जिस दुकानदार के पास बैठा था उसने भी झटपट अपनी दुकान बंद की और बोला, ‘‘अभय भाई मैं घर जा रहा हूँ। आप भी घर चले जाइए।’’ मैं कुछ नहीं बोला पाया एक दो मिनट के अन्दर सारी दुकानें बंद हो गईं। अब कुछ लोग अपने घर की तरफ़ चल ड़े और कुछ बाँध की ओर। मैं खड़ा-खड़ा सोचने लगा कि अब क्या करूँ। इतने में ही मेरा एक दोस्त मोटर-साइकिल से आया और बोल, ‘‘अभय यहाँ पर तुम क्या कर रहे हो बाँध टूटने वाला है? जल्दी से घर चलो। मैंने कहा, ‘‘अरे भाई मुझे घर जाना होता तो कब का चला गया होता।’’ मेरे दोस्त ने फिर कहा, ‘‘तो क्या बाढ़ में डुबोगे?’’ मैंने बोला, ‘‘हीं रे, काहे डरता है तू बाढ़ से, चल मेरे साथ। हम सब मिलकर बाँध को टूटने से बचाते हैं।’’ मेरा दोस्त एकदम से घबरा गया और बोला, ‘‘....... देख मेर भाई अगर तू बाँध को टूटने से बचाने की कोशिश करेगा तो चल मैं भी तेरे साथ हूँ, जो होगा देखा जाएगा। जब हम दोनों दोस्त बाँध पर पहुँचे तो वहाँ गज़ब का नज़ारा था। कोई अपने कंधे पर अनाज़ का बोरा लादे हुए इधर-से-उधर भाग रहा था तो कोई अपने मवेशियों को सुरक्षित स्थान की ओर ले जा रहा था। गाँव के कुछ नौजवान बोरे में मिट्टी भरकर वहाँ डाल रहे थे जहाँ पर बाँध कि स्थिति बहुत ही ख़राब थी। मैं और मेरे दोस्त भी उन नौजवानों की मदद में लग गए। इतने में बाँध की देख-रेख करने वाला गार्ड आया। वहाँ खड़े सभी लोगों ने उसे घेर लिया। सबका एक ही सवाल था उससे, ‘‘कहाँ है तुम्हारी प्रशासन? हम लोग अगर इस बाढ़ में बह जाते तो तुम लोग आते हमलोगों की लाशें उठाने। इतने में कुछ नौजवान पीटो-पीटोचिल्लाने लगे। लेकिन कुछ लोगों ने थोड़-थम कर दिया और लोगों की मेहनत रंग लाई। बाँध तत्काल टूटने से बच गया।

आभार: चन्दन शर्मा

गुरुवार, 27 सितंबर 2007

कमलेश्वर और हिन्दी में मीडिया लेखन: एक गोष्ठी

नयी कहानी पहली पंक्ति के अग्रणी लेखक तथा मीडिया लेखन में दमदार भूमिका अदा करने वाल साहित्यकार स्वर्गीय की स्मृति में सफ़र की ओर से विगत 18 फ़रवरी को तिमारपुर में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक श्री प्रभात रंजन और इतिहासकार एवं लेखक तथा 'दीवान-ए-सराय' श्री रविकान्त ने साहित्य के सामान्तर जनसंचार माध्यमों के लिए लेखन में एक समान दख़ल रखने वाले कमलेश्वर के लेखकीय जीवन के दोनों पहलुओं पर विस्तारपूर्वक चर्चा की थी. पेश है उसकी एक संक्षिप्त रपट:

प्रभात रंजन के मुताबिक़ कमलेश्वर ऐसे वक़्त में दूरदर्शन से जुड़े जब भारत में टेलीविज़न की पहुंच सीमित थी. उस दौर के तमाम साहित्यकार रेडियो के लिए काम में रुतबा महसूस करते थे और टीवी के लिए काम करना दोयम दर्जे का समझा जाता था. तब कौन जानता था कि आज के लगभग दस हज़ार करोड़ के मीडिया साम्राज्य का सिरमौर दूरदर्शन ही बनने वाला है. पॉप्युलर मीडिया के कार्यक्रम, भले ही ज्यादा देखे जाने वाले एकता कपूर की धारावाहिकें ही क्यों न हो, हममें से कितने लोग उनके पटकथा लेखकों को जानते हैं, परंतु चन्द्रकांता जैसे मेगा हिट धारावाहिक हो या मौसम, आंधी, अमानुष, सौतन, हरजाई, गृहप्रवेश, आदि फिल्में – पटकथा लेखक कमलेश्वर को कभी पहचान का संकट नहीं रहा. कमलेश्वर तथा मनोहर श्याम जोशी हिन्दी के ऐसे जाने-माने साहित्यकार हैं जिन्होंने ये साबित कर दिया जनसंचार माध्यमों में भी रचनात्मका की गुंजाइश है, जबकि प्रेमचंद जैसे मूर्धन्य साहित्यकार ने सिनेमा जगत को सृजनात्मकता के लिए दमघोंटू माहौल करार दिया था. मीडियाकर्मी-साहित्यकार के आयामों को समेटे हुए कमलेश्वर ने अगर कितने पाकिस्तान जैसा चित्रात्मक धटनाप्रधान उपन्यास लिखा है तो वहीं डाकबंगला, रेगिस्तान कृतियों के ज़रिए भी उन्होंने अपना लोहा मनवाया है. मीडिया में सफ़ल कमलेश्वर का सामाजिक सरोकार भी उतना ही उल्लेखनीय रहा है. उन्होंने 1984 में कानपुर में चार बहनों की सामूहिक आत्महत्या की विषयवस्तु पर आधारित व़त्तचित्र की पटकथा भी तैयार की. प्रभात रंजन के मुताबिक कमलेश्वर ने केवल टेलीविज़न या रेडियो के लिए ही नहीं लिखा, बल्कि अख़बारी लेखन में भी उनकी धाक लम्बे समय तक कायम रहेगी. और तो और उन्होंने छोटे-छोटे शहरों और दूर-दराज के गांवों में जबरदस्त पहुंच बना लेने वाले ‘दैनिक भास्कर’ और ‘दैनिक जागरण’ जैसे अख़बारों के शुरुआती संपादक की भूमिका भी निभायी. एक ठेठ राजस्थानी तेवर लिए तो दूसरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बोलियोंं में सना हुआ.

रविकान्त ने कहा कि कमलेश्वर भाषा के मामले में बेहद उदार थे. गंगा-जमुनी तहज़ीब कमलेश्वर के लेखन की बड़ी विशेषता थी. उन्होंने कहा, ‘कुछ भी नया करने के लिए बने-बनाए खांचों और वैचारिक दड़बों को तोड़ना पड़ता है और कमलेश्वर ने यह काम बख़ूबी किया.’ आज अंग्रेज़ी के मुक़ाबले हिन्दी में तकनीकी शब्दों की कमी है, और ऐसे में हमें हिन्दी-उर्दू के मिले-जुले शब्द भंडार को इस्तेमाल करने से नहीं हिचकना चाहिए. इससे हमारा शब्द भंडार और समृद्ध होगा. रविकान्त के अनुसार हिन्दी उर्दू के अल्फ़ाजों का जमकर इस्तेमाल करने वाले कमलेश्वर कॉपीराइट का भी जमकर विरोध करते हैं. कृष्णा सोबती और अमृता प्रीतम के बीच जिन्दगीनामा को लेकर हुआ विवाद हो या ऐसा ही कोई और प्रसंग, उन्होंने भाषा की राजनीतिक लड़ाई खड़ा करने वालों की जमकर खिंचाई की.

कमलेश्वर ऐसे महत्वाकांक्षी लेखक थे जिन्होंने जिस भी विधा में हाथ आज़माया उसको पूरी लगन और तन्मयता के साथ अंजाम तक पहुंचाया और कामयाबी हासिल की. उन्होंने हिन्दीभाषी लेखक के उस दुराग्रह को भी तोड़ा कि व्यावसायिक और कला सिनेमा के साथ रचनात्मक संतुलन नहीं कायम किया जा सकता है. वस्तुत: मनोहर श्याम जोशी और कमलेश्वर के निधन से हिन्दी जगत को बहुत बड़ी क्षति हुई है. आज मीडिया लेखन के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मीडिया संस्थानों में रचनात्मक लेखन को लेकर कोई पहल नहीं की जा रही है, और इस लिहाज़ से कमलेश्वर की कमी और खलती है जो न केवल संवेदनशील रचनाकार थे बल्कि अपने आप में एक संस्थान भी.

डीए फ़्लैट्स के निवासियों के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी इस परिचर्चा में भागीदारी की.

सोमवार, 24 सितंबर 2007

'सफ़र' और 'माटी' की प्रस्तुति: स्वयम्

21 सितम्बर, अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस के अवसर पर नयी दिल्ली में एक पांच दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन किया गया है. ‘कृति’ के तत्वाधान में आयोजित इ कार्यक्रम में कई सामाजिक एवं स्वैच्छिक भाग ले रही हैं.

भारत पर्यावास केन्द्र (इंडिया हैविटेट सेंटर), लोधी रोड स्थित पाम कोर्ट में चल रहे रहे इस कार्यक्रम में शांति-संदेशों से लैस पोस्टर औ फ़ोटो प्रदर्शनियों के अलावा विभिन्‍न सामाजिक मसलों पर कार्यरत् संस्थाओं द्वारा उनके कामों से संबंधित कामों की जानकारी से युक्त स्टॉल्स भी लगाए गए हैं.

‘सफ़र’ ने इस कार्यक्रम में अपनी सहयोगी संस्था ‘माटी’ के साथ मिलकर पे किया 'स्वयम्', मिथकीय प्रसंग महिषासुर मर्दिनी की पुनर्व्याख्‍या.

मिथकों में कहा गया है कि दुर्गा की उत्पत्ति आसुरी शक्तियों का विनाश करने के लिए हुई थी. महिषासुर नामक दानवों के राजा को कई वर्षों की तपस्या के बाद ब्रह्मा ने वरदा दिया था कि कोई भी देवता या मानव (नर) उसका वध नहीं कर पाएगा. इस वरदान के घमंड में इतना चूर हो गया कि वह पूरी दुनिया पर शासन करने का ख़्वाब देखने लगा, और पूरी दुनिया को आतंकित करना शुर कर दिया. तीनों लोकों में भय और दहशत का माहौल पैदा हो गया. देवता भी उससे मुक़ाबला करने में असफल रहे. आखिरकार उन्होंने त्रिदे यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास जाकर महिषासुर के आतंक से आज़ाद कराने की विनती की. कोई स्त्री ही उसका संहार कर सकती थी यह जानकर तीनों देवताओं ने अपनी उर्जा से देवी यानी दुर्गा का सृजन किया, और उसे अस्त्र-शस्त्र से लैस किया. रूद्र ने अपना त्रिशुल, विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र, ब्रह्मा ने अपना कमंडल और इंद्र ने वज्र आदि हथियारों से देवी को सुसज्जित किया. और फिर संग्राम में सामने आने पर दुर्गा ने त्रिशुल से महिषासुर का सीना भेदकर तीनों लोकों को असुरों के आतंक से मुक्त कराया.

आधुनिक युग में भी स्त्रियों को तरह-तरह की आसुरी शक्तियों का मुक़ाबला करना करना पर रहा है. हर क्षेत्र में स्त्रियां असुरक्षित हैं. घर-परिवार, या समाज या फिर कार्यस्थल : शोषण जारी है. छेड़खानी, बलात्कार, तेज़ाब से हमला, दहेज़-हत्या, या फिर गर्भ में मादा भ्रूण हत्याएं ... फ़ेहरिस्त अंतहीन है.

अत: महिलाओं को ही फिर से इस राक्षस का अंत करना होगा. आज की स्त्रियां बेहद उर्जावान है, आत्म-सम्मान, शिक्षा, चेतना तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता से लैस हैं, असुरों का बध करने में सक्षम हैं और ये सिद्ध कर सकते हैं कि वो अदि-शक्ति दुर्गा की वंशज हैं.

शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

कांशीराम और उत्तर भारत में दलित आन्दोलन: एक गोष्ठी

सफ़र ने विगत 5 नवंबर 2006 को तिमारपुर स्थित दिल्ली डमिनिस्ट्रेशन कॉलोनी मेंकांशीराम और उत्तर भारत में दलित आंदोलन' विषय पर एक गोष्ठी का आयोजन किया था. पेश है उसकी एक संक्षिप्त रपट:

सीएसडीएस में वरिष्ठ फ़ेलो श्री आदित्य निगम ने बातचीत की शुरुआत करते हुए कहा कि उत्तर भारत के राजनीतिक पटल पर कांशीराम के सामने तमाम कद्दावर नेता या हस्ती बौनी पड़ जाती है. डॉ आम्बेडकर के बाद 1980 से कांशीराम ने दलित सियासत को नया मोड़ दिया. उन्होंने आम्बेडकर का ज्यों का त्यों अनुसरण करने के बजाय उनकी उपलब्धियों और ग़लतियों, दोनो से सबक़ लिया. वे मौक़े तथा वक्त के हिसाब से नीतियां बनाने में माहिर थे. बहुजन समाज पार्टी के तहत मनु विरोधी दलित तथा पिछड़ों को संगठित करना सिर्फ उनके बूते की ही बात हो सकती थी. समाज के शोषित तबक़े के सामाजिक एवं राजनीकि उत्थान के लक्ष्य के बावजूद उन्होंने कभी भी दलित हितों के साथ समझौतावादी रवैया अख्तियार नहीं किया. इसी बिंदु पर बसपा समाजवादी पार्टी से स्वयं को अलग करती है. पहली बार 1993 में मायावती के सत्तारोहण के शिल्पकार कांशीराम ने दलित तबक़े को यह अहसास कराया कि वे भी राजनीति की कमान थाम सकते हैं. राजनीति के खेल में अल्पसंख्यक माने जाने वाले दलित अब ताल ठों कर कह सकते थे कि वे भी सत्ता के सिंहासन पर क़ाबिज़ होने का दम-ख़म रखते हैं. कांशीराम के आन्दोलन के फलस्वरूप दलितों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ.

विगत दशकों में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज़ होने के साथ चूंकि उच्च तथा सवर्ण वर्ग का पलायन शहारों की तरफ़ हुआ है, इसलिए अब गांवों में मुख्य रूप से दलित तथा पिछड़े वर्गों के बीच संघर्ष होने लगे हैं. आदित्य ने कांशीराम के बारे में मीडिया या समाज के एक हिस्से द्वारा अवसरवादी राजनीति करने का आरोप का खंडन करते हुए कहा कि कांशीराम का कहना था कि दलितों को तो अब तक अवसर ही नहीं मिला है, दलितों को अपनी राजनीति‍क और सामाजिक तरक़्क़ी के लिए जो भी अवसर मिले उसका इस्तेमाल ज़रूर करना चाहिए. कांशीराम की नीतियों की सराहना करते हुए श्री निगम ने कहा कि यदि वे उन अवसरों का इस्तेमाल नहीं करते जो उन्होंने उत्तर प्रदेश में किया तो आज बहुजन समाज पार्टी ताक़त नहीं होती. उनके मुताबिक़ कांशी राम बेहद ही सुलझे द्रष्टा थे. हिन्दुस्तान की सियासत में उनकी सोशल इंजीनियरिंग का कोई जोड़ नहीं है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थी श्री सतेन्द्र कुमार ने भी आदित्य की बात का समर्थन करते हुए 1993-94 को दलित राजनीति के लिए अहम दौर बताया क्योंकि पहली बार दलित और पिछड़ों को अपनी मजबूत राजनीतिक-सामाजिक हैसियत का अंदाज़ा हुआ. आम तौर पर भारतीय ग्राम जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसे, फलां गांव जाटों का है, फलां यादवों का तो फलां जाटवों का. प्रशासनिक काम-काज के लिए सवर्ण नेताओं, ग्राम सेवकों के सामने उन्हें हाथ जोड़ने पड़ते थे. सामुदायिक भवनों में, जलसों-बैठकों तक में उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता था. मगर 1993 के बाद से परिदृश्य तेज़ी से बदला है. दलितों के पास मायावती, कांशीराम जैसे सफल राजनीतिज्ञ मौजूद थे. अब वे भी पार्टी का परचम लहरा सकते थे, बैनर टांग सकते थे. उन्हें सरकारी काम-काज के लिए दलित स्वयंसेवकों और नेताओं की जमात हासिल होने लगी. दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं की दशा में भी सुधार हुआ. अब मतदान के प्रति उनका भी रुझान बढ़ा, क्योंकि उनके पास अब कांग्रेस और भाजपा के बरअक्स एक विकल्प मौजूद था.

गोष्ठी में डीए फ़्लैट्स रेसिडेंट्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन के श्री बिशनचंद्र, श्री बाबुलाल रमण तथा श्री रणवीर सिंह, सफ़र के शोध संयोजक श्री नरेश गोस्वामी, लीगल सेल की संयाजिका सुश्री चंद्रा निगम, मीडिया संयोजिका सुश्री भावना था विस्तार संयोजक श्री आदित्यना‍थ के अलावा बीबीसी हिन्दी सेवा से जुड़े पत्रकार श्री स्वदेश कुमार तथा डॉ. भीमराव आम्बेडकर कॉलेज की छात्रा सुश्री चंचल ने भी अपने विचार व्यक्त किए. गोष्ठी में आसपड़ोस के लोगों के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी हिस्सा लिया.

धन्यवाद ज्ञापन करते हुए सफ़र दिल्ली के संयोजक श्री गौतमजयप्रकाश ने कहा कि संस्था विगत आठ-दस महीनों से विभिन्न मसलोंपर इस इलाक़े में काम कर रही है. संस्था की यह कोशिश है किसामाजिक-सांस्कृतिक मसलों परहोने वाली गोष्ठियां केवलविश्वविद्यालयों, शोध- संस्थानों तथामंडी हाउस या कला दीर्घाओं केआसपास तक ही सिमट कर रहजाएं. इसी सोच के साथ सफ़र इलाक़ोंऔर गली-मोहल्लों में सामाजिकसरोकारों से जुड़े मसलों पर चर्चा, वाद-विवाद, गोष्ठी, इत्यादि कार्यक्रमोंका आयोजन कर रहा है और आगे भीकरता रहेगा.

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

सफ़र का अगला चरण



सफ़र जल्‍दी ही अपनी स्थापना के दो साल पूरे करने जा रहा है. इस अवधि में अपनी सीमित ताक़त के बावजूद सफ़र ने दिल्‍ली और बिहार में तरह-तरह के प्रयोगात्‍मक काम किए हैं. एक ओर दिल्‍ली में जहां ‘अभिव्‍यक्ति’ (डॉक्‍टर बाबा साहब भीमराव अम्‍बेडकर की जयंती पर हर साल दो दिवसीय सांस्‍कृतिक कार्यक्रम), जाति, जेंडर, धर्म इत्‍यादि जैस ज्‍वलंत सामाजिक मुद्दों पर सेमिनार तथा गोष्‍ठी, क़ानूनी सलाह व सहायता शिविर, सूचना के अधिकार क़ानून पर जनजागरण अभियान – सफ़र के प्रमुख कार्यक्रम बन चुके हैं. वहीं दूसरी ओर इसने बिहार के दो पिछड़े क्षेत्रों में भी शिक्षाघर, किताबघर, क्‍लब, तथा मीडियाघर जैसे प्रयोग भी आरंभ कर दिए हैं. इसी दौरान संगठन ने पिछले साल नयी दिल्ली में आयोजित इंडियन सोशल फ़ोरम में भी हिस्‍सा लिया, और सरहद पार (पाकिस्‍तान) से आए शांतिदूतों के साथ साझा बैठकें भी कीं. संस्‍था के युवा और छात्र साथियों ने दिल्‍ली के कुछ पुनर्वास बस्तियों का एक विस्‍तृत अध्‍ययन भी किया.
इस अवधि में बहुत से नए साथी यह जानते हुए भी हमसफ़र बने और शुभचिंतकों का दायरा भी बढ़ा कि यह एक ऐसा सफ़र है जिसमें उनका श्रम, समय पैसा – तीनों ख़र्च होगा. दोस्‍तों, शुभचिंतकों, समान सोच वाले व्‍यक्तियों व समूहों का यदा-कदा कार्यक्रम आधारित सहयोग ही इस गैरलाभकारी मुहिम का वित्‍तीय आधार है. अभिव्‍यक्ति हो या शिक्षाघर, क्‍लब हो या किताबघर, सेमिनार, गोष्‍ठी हो या मीडियाघर – अपने तमाम शुभचिंतक व्‍यक्तियों व समूहों ने न केवल वित्‍तीय सहायता प्रदान की बल्कि संस्‍था के प्रयासों और प्रयोगों की सराहना और हौसलाअफ़जाई भी. निश्चित रूप से संगठन ऐसे तमाम सहयोगियों का शुक्रगुज़ार है.
यह भी सच है कि इस दौरान सफ़र अपने प्रचार-प्रसार के लिए कोई संगठित प्रयास नहीं कर पाया. हिन्‍दी में संस्‍था का पहला पर्चा कुछ महीने पहले ही आया है, जबकि अंग्रेज़ी में आना तो अब भी बाक़ी है. हालांकि छिटपुट अख़बारों, ख़बरिया चैनलों तथा हिन्‍दी चिट्ठाकारों ने सफ़र के प्रयासों को ज़रूर प्रकाश में लाने की कोशिश की ज़रूर की है.
यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि अब तक संस्‍था ने जो भी काम किए वो स्‍वत:स्‍फूर्त ही हुए. ऐसा नहीं है कि कोई योजना नहीं रही, लेकिन समय और तात्‍कालिकता का ज्‍यादा प्रभाव रहा. इसलिए यह ज़रूरी है कि अब जबकि संस्‍था अपनी स्‍थापना के तीसरे साल में दाखिल होने जा रही है, संगठन और कार्यक्रम को लेकर कुछ चिंतन किया जाय.
विगत 2 सितंबर 2007 को पिछल कार्यकारी समिति की बैठक में अन्‍य बातों के अलावा निम्‍नलिखित फ़ैसले लिए गए:

मीडिया, क़ानून और शिक्षा – इन तीन बिंदुओं के इर्द-गिर्द ही सफ़र अपके कार्यक्रमों को केंद्रित करेगा.

स्‍थान: यह महसूस किया गया कि गठन के लगभग दो साल बाद भी संस्‍था क पास कार्यालय या ऐसी कोई जगह नहीं है जहां से कार्यक्रमों का संचालन किया जाए. सर्वसम्‍मति से यह तय किया गया कि जल्‍द से जल्‍द से किसी कार्यालय की व्‍यवस्‍था की जाए.
सफ़र, दिल्‍ली की भावी गतिविधियां:
1 यह तय किया गया कि संस्‍था दिल्‍ली में छात्रों और नौजवानों के बीच ज्‍यादा काम करेगी. इसके लिए कुछ कॉलेजों व स्‍कूलों को चिन्हित किया जाएगा और मीडिया, क़ानून तथा अन्‍य ज़रूरी सामाजिक मसलों पर सेमिनारों, कार्यशालाओं, गोष्ठियों इत्‍या‍दि के माध्यम से उनसे रू ब रू हुआ जाएगा ताकि वे जागरूक हों और अपने आसपास सामाजिक मसलों पर सक्रिय ह सकें.
2 कॉलेजों और स्‍कूलों में सूचना के अधिकार शिविरों का आयोजन भी किया जाए, ख़ास कर दिल्‍ली की परिधि पर स्थित कॉलेजों में. ताकि छात्रों की सुविधाओं और उनके नाम पर वसूले जाने वाले पैसे का लेखा-जोखा प्राप्त किया जा सके.
3 यह भी तय किया गया कि सफ़र के कुछ सदस्‍य समय-समय पर मीडिया पढाए जाने वाले कॉलेजों में छात्रों के पाठ्यक्रम में मदद करें.
4 मीडिया के विभिन्न स्‍वरूपों के साथ प्रयोग सफ़र के महत्‍तवपूर्ण सरोकारों में से ए है. अक्‍टूबर 2007 से संस्‍था 8 पृष्‍ठों का एक न्‍यूजलेटर या अख़बार शुरू करेगी. पहले यह हिन्‍दी में होगा जिसे अगले कुछ महीनों में सुविधानुसार अंग्रेजी में भी प्रकाशित किया जाएगा. साथ ही अगले दो महीने में संस्‍था सामुदायिक वीडियो इकाई भी आरंभ करेगी, जिसके ज़रिए रोज़मर्रा के विभिन्‍न मसलों पर छोटे-छोटे वीडियो और एनिमेशन का प्रॉडक्‍शन किया जाएगा.
उपर्युक्‍त कार्यक्रमों के अलावा यह भी तय किया गया कि जनहित क विभिन्‍न मुद्दों पर शहर में होने वाले कार्यक्रमों, संघर्षों, आंदोलनों इत्‍यादि में भी संस्‍थ शिरकत करेगी.
साथ ही संस्‍था समय-समय पर विभिन्‍न सामाजिक प्रश्‍नों पर सैद्धांतिक समझदारी बनाने के लिए आवासीय शिविरों का आयोजन भी करेगी.
वित्त -व्‍यवस्‍था:
यह जानते हुए कि संस्‍था की रोज़मर्रा के ख़र्च के लिए कोई कोश नहीं है, और न ही संस्‍था किसी बड़े अनुदान में यक़ीन रखती है – तय किया गया कि संस्‍था के कोर सदस्‍य कुछ निश्चित राशि हर महीने संस्‍था की कोश में जमा करें. साथ ही सदस्‍यों की संख्‍या बढ़ाने के लिए सक्रिय प्रयास किए जाएं. शुभचिंतकों या ऐसे सदस्‍यों से भी कुछ निश्चित राशि प्रति माह इकट्ठे किए जाए जो इसके कार्यक्रमों और नीतियों से सहमत हैं.
इसके अलावा संस्‍था अपने पेशेवर सदस्‍यों की मदद से विभिन्‍न संगठनों और संस्‍थाओं के लिए पेशेवर काम भी करेगी ताकि संस्‍था के लिए कुछ कोश जुटाया जा सके. संस्‍था शोध, अनुवाद, संपादन, डिज़ाइन संबंधी काम कर सकती है, इसके अलावा जाति, जेंडर, क़ानून और मीडिया संबंधी कार्यक्रमों के लिए प्रशिक्षक और फ़ेसिलिटेटर भी मुहैया करा सकती है.
संस्‍था में आंतरिक जिम्‍मेदारियां :
(i) विश्‍वविद्यालय संयोजक प्रदीप कुमार सिंह
(ii) संयोजक, लीगल सेल चंद्रा निगम
(iii) स्‍कूल संयोजक नरेश कुमार
(iv) शोध संयोजक नरेश गोस्‍वामी
(v) विस्‍तार संयोजक आदित्‍य नाथ
(vi) मीडिया और प्रकाशन संयोजक भावना
(vii) छात्र संयोजक चंचल मेहलावत
(viii) वित्त संयोजक शीतल श्‍याम
(ix) दिल्‍ली संयोजक गौतम जयप्रकाश

सफ़र, बिहार
बैठक में सफ़र, बिहार की गतिविधियों की भी समीक्षा की गयी और भावी कार्यक्रमों पर विचार किया गया. फिलहाल बिहार में संस्‍था की तरफ़ से शिवहर जिले के तरियानी छपरा गांव में 5 शिक्षाघर, एक किताबघर, एक क्‍लब चलाए जा रहे हैं. हाल ही में तीन स्‍थानीय कार्यकर्ता सफ़र, दिल्‍ली के दो अन्‍य साथियों के साथ उदयपुर में 10 दिवसीय फिल्‍म निर्माण कार्यशाला में प्रशिक्षण लेकर आए हैं. अब वहां के स्‍थानीय कार्यकर्ता गांव में एक मीडियाघर स्‍थापित करने की धुन में लगे हुए हैं. फिलहाल तरियानी छपरा में सफ़र के पास एक कंप्‍यूटर (लैपटॉप) तथा एक हैंडीकैम है. नियमित दो घंटे की बिजली आपूर्ति न होने की वजह से वहां मीडियाघर के काम में बाधा आ रही है. साथ ही इंटरनेट के अभाव के कारण बहुत सारी तकनीकी समस्याओं से निपटने में भी उन्‍हें समस्‍याओं का सामना करना पड़ रहा है.
संस्‍था की कोशिश है कि अगले कुछ महीनों में तरियानी छपरा में मीडिया संबंधी कुछ अन्‍य उपकरण और एक जेनरेटर सेट की व्‍यवस्‍था की जाए ताकि मीडियाघर का काम सुचारू रूप से आरंभ हो सके और सामुदायिक वीडियो इकाई का सफ़र का सपना साकार हो सके.
सफ़र, बिहार के कामों के संयोजन की जिम्‍मेदारी राकेश को दी गयी है जो वे स्‍थानीय कार्यकर्ताओं के साथ तालमेल से करेंगे. इसके अलावा राकेश सफ़र, दिल्‍ली के कामों में भी हाथ बंटाएंगे.

सोमवार, 17 सितंबर 2007

'सफ़र' का गीत


ज़माने के लब्ध -प्रतिष्ठित गीतकार यश मालवीय
शुरुआत से ही सफ़र के हमसफ़र हैं.

पेश है सफ़र को
उनका दिया तोहफ़ा :


‘सफ़र’ का सफ़र है

सफ़र में ओ साथी

सभी को हृदय से, गले से लगाना

जो सोया है अपना सवेरा जगाना

सफ़र है ये बच्चों, जवानों सभी का

सफ़र है ये कुचले हुए आदमी़ का

ये दो जून का है, ये क़ानून का है

सफ़र है ये औरत की गुम जिन्दगी का

‘सफ़र’ का सफ़र है

सफ़र में ओ साथी

कोई विरवा लगाना उगाना

जो तिल भर है आलस उसे भी भगाना

सफ़र है किताबों का, ये कॉपियों का

सफ़र बिस्कुटों का है, ये टॉफियों का

सफ़र में है शिक्षा, सफ़र में परीक्षा

सफ़र ये नहीं अब तो कमज़ोरियों का

‘सफ़र’ का सफ़र है

सफ़र में ओ साथी

कि हक़ छीन लेना, बदलना ज़माना

कि गाने लगे फिर से ये आबोदाना

सफ़र में नहीं पांव में बंदिशें हैं

ये जीने की बेहतर सी कुछ कोशिशें हैं

सफ़र ये शहर का, सफ़र गांव का है

सफ़र में परिन्दों सी कुछ ख्वाहिशें हैं

‘सफ़र’ का सफ़र है

सफ़र में ओ साथी

हवा में मचलना, पतंगे उड़ाना

चिरागों से जलना, मशालें जलाना.

बुधवार, 12 सितंबर 2007

सूचना का अधिकार शिविर


बीते शनिवार 8 सितंबर 2007 सफ़र, दिल्ली ने सतर्क नागरिक संगठन (एसएनएस) के साथ मिल कर तिमारपुर स्थित दिल्ली सरकार आवासीय परिसर में एक 'सूचना का अधिकार' शिविर का आयोजन किया. एसएनएस की ओर से अंजलि भारतद्वाज, अमृता तथा अशोक भाई ने स्थानीय नागरिकों को सूचना के अधिकार क़ानून के बारे में बताया और विभिन्न सरकारी महकमें से संबंधित उनके सवालों पर आवेदन बनाने में उनकी सहायता की. शिविर में पीडब्ल्यूडी तथा हॉर्टिकल्चर विभाग के लिए कई आवेदन पत्र तैयार किए गए. स्थानीय रेजिडेंट्स वेलफ़ेयर संगठन के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी शिविर में शिरकत की. नीतू, चंचल, संचिता, राजीव, और रजनीश के अलावा सफ़र की मीडिया संयोजक भावना तथा लीगल सेल की संयोजक चंद्रा निगम ने शिविर के आयोजन में महत्वूर्ण भूमिका निभाई.

बुधवार, 5 सितंबर 2007

सफ़र बदल रहा है ग्रामीण भारत की तस्वीर

कहते हैं सफ़र में कई मोड़ आते हैं, और हर मोड़ पे सफ़र हमें खास अंदाज में कुछ कहता जरूर है। सफ़र के इसी अंदाज से रु-ब-रु होने का मौका मिला दिल्ली में । यहां एक संस्था है- सफ़र । समाज में उपेक्षित तबकों की बेहतरी और उनके सशक्तीकरण के के मद्देनजर सफ़र संवाद और गतिविधियों का खुला मंच है। खासकर दिल्ली में सफ़र ने लगातार हीं संवाद का माहौल बनाए रखा है। दिल्ली के अलावा बिहार के कुछ ग्रामीण इलाकों में भी यह संस्था बढ़-चढ़ कर काम कर रही है।

सफ़र ने बिहार के शिवहर जिले के कुछ ग्रामीण युवाओं को सिल्वर स्क्रीन की दुनिया में प्रवेश कराने का जिम्मा उठाया है। आप चौंकिए मत, इन्हें नायक (अभिनेता) नहीं बनाया जा रहा है, बल्कि ये अब फिल्म बना रहे हैं। कुछ फिल्में बनकर तैयार हो चुकी है। उदयपुर की संस्था शिक्षांतर ने इन युवाओं को फिल्म-निर्माण के क्षेत्र में प्रशिक्षण दिया तो इनके अंदर छिपी प्रतिभा उभर कर सामने आ गयी। अभय, रामप्रवेश और विजय ने यह सिद्ध कर दिया कि कामयाबी को मेहनत और लगन से कोई भी हासिल कर सकता है। ये सभी युवा हैं। उम्र 18 से 20 साल के बीच। लेकिन जब आप इनके द्वारा बनायी गयी लघु फिल्में को देखेंगे तो शायद आप भी बोल पड़ेगें- “क्या बात है.......!” रामप्रवेश , विजय और अभय शिवहर के अपने गांव में शिक्षा घर और क्लब चला रहे हैं। इनमें जोश है, जो इनसे बात करने से साफ झलकता है।
विजय कहते हैं“मेरे पास आइडिया है, मैं आस-पास होने वाली घटनाओं को ध्यान में रखकर फिल्म बना सकता हूं। और हां, मैंने जो फिल्म उदयपुर क वर्कशॉप में बनायी है, वह भी तो कुछ ऐसा हीं कहती है।” इसी अंदाज से ये तीनो बोल रहे हैं। शायद आने वाला वक्त इन्हें और भी मौका देने वाला है। ये तीनो जिस परिस्थिती में बिहार से आये हैं, वो भी काबिले-तारिफ है। गौरतलब है कि बिहार के कई इलाकों में इन दिनों बाढ़ ने भयानक तबाही मचा रखी है। आप भयावकता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि इन लोगों ने 35 किलोमीटर की दूरी 6 घंटे में पूरी की तब जाकर स्टेशन तक पहुंचे। विजय की फिल्म भी बाढ़ से जुड़े सवालों को ही उठाती है। जब विजय से पूछा गया कि अब आगे क्या करने का विचार है तो वो बेबाकी से बोल उठा -“मैं गांव जाकर सबसे पहले अपनी फिल्म गांव वालों को दिखाऊंगा, ताकि वे समझ सकें कि मैं भी कुछ कर सकता हूं, मुझमें भी फिलींग है........मैं आने वाले समय में सफ़र के सहयोग से अपने गांव में सामुदायिक फिल्म केन्द्र बनाने का प्रयास करूंगा, मुझे आशा है कि गांव वालों को इससे जरूर फायदा पहुंचेगा।” सफ़र के इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए। सफ़र के राकेश कुमार सिंह, जो सराय- सीएसडीएस से जुड़े हैं, कहते हैं कि इनलोगों ने सचमुच कमाल कर दिखाया है। वे बताते हैं कि “आनेवाले समय में इनके द्वारा बनायी गयी फिल्में बिहार में तो दिखायी हीं जाऐंगी, साथ-साथ दिल्ली में भी इसे सामने लाया जाएगा, हम और भी संभावनाओं पर गौर कर रहे हैं।” गौरतलब है कि बिहार के गांवों में चल रहे शिक्षा घर और क्लब सफ़र के सौजन्य से हीं चल रहे हैं, और इन सभी सार्थक प्रयासों के पिछे राकेश कुमार सिंह का हीं हाथ है।समाज मे इस प्रकार के प्रयास हीं सही अर्थों में सार्थक प्रयास कहलाते हैं। आशा की किरण मात्र से कई लोगों में उत्साह छा जाता है। इन लोगों से मिलने और इनकी फिल्मों को देखने आए दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र मयंक कहते हैं, “बदलाव इसी का नाम है”। लेकिन सवाल यह उठता है कि विजय, अभय जैसे लाखों युवाओं को ऐसे मौके क्या लगातार मिलते रहेंगे? यदि सफ़र जैसी संस्था और भी संख्या में सामने आए तो शायद तस्वीर जल्द बदल सकती है।